Thursday, April 15, 2021

बैगम

आप ज़िद छोड़ क्यों नहीं देतीं, मुझे चश्मा बनवा दीजिए। मेरी मजबूरी को समझिए,मैं चश्मे के बगैर देख नहीं पा रहा हूं, पढ़ नहीं पा रहा हूं, दिनचर्या मैं कठिनाइ हो रही है। लिखना पढ़ना,यार दोस्त सब छूट गए हैं। अपनी विकलांगता के कारण किसी को फोन तक नहीं कर पा रहा हूं। मैंने बैगन से एक मजबूर की तरह फरियाद करते हुए कहा। उत्तर में उन्होंने कहा- सब्र कीजिए, थोड़े ही समय की बात है। बेटा कनाडा गया है और मुझसे वायदा करके गया है कि वह अपनी पहली कमाई की मोटी रक़म सबसे पहले मुझे भेजेगा। पैसे मिलते ही मैं सबसे पहले आपके लिए सोने के फ्रेम का चश्मा बनवा दूंगीं।
तब तक बहुत देर हो चुकी होगी, आप यह क्यों नहीं समझतीं, पिछले 6 माह से मैं सोने के फ्रेम वाले चश्मे के इंतज़ार में विकलांगों जैसा जीवन बिता रहा हूं। आखिर ऐसा कब तक चलेगा, इंतज़ार की भी कोई सीमा होती है। मेरा अपना भी कोई अस्तित्व है। इसके आगे मैं कुछ कह पाता बेगम ने मुझे बीच में ही रोकते हुए कहा- सब्र कीजिए सब्र। सब्र का फल मीठा होता है।
बेगम की नसीहत सुनकर मैंने चिढ़कर एक बार फिर कहा- आप हट छोड़ क्यों नहीं देतीं, मुझे सोने के फ्रेम वाले चश्मे से कहीं अधिक एक ऐसे चश्मे की आवश्यकता है, जो मेरी दिनचर्या में मेरी मदद कर सके। फिर बात को और आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा- मोटी कमाई जब आएगी तब आप उससे अपने लिए गहने बनवा लीजिएगा। वह गहने जो आपने अपने बेटे को कनाडा भेजते समय उसकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए बेच दिए थे। मुझे सोने के फ्रेम वाले चश्मे की आवश्यकता नहीं है, मुझे तो आप साधारण सा चश्मा बनवा दीजिए। मेरा काम चल जाएगा।
मेरे तर्क सुनकर बेगम फिर बोलीं- गहनों से कहीं ज्यादा मुझे आपके चश्मे की चाहत है, वैसे भी मेरा गहना तो आप हैं। कनाडा गया  बेटा है। मैं तो केवल आपकी आंखों पर सोने के फ्रेम वाला चश्मा देखना चाहती हूं। यही मेरी तमन्ना है और यही मेरी इच्छा है। इतना कहकर बेगम ने मुझसे कहा- मेरा दिल घबरा रहा है, मुझे पसीना आ रहा है।आप एक गिलास पानी ला दिजिए। मैं उनके लिए जब पानी लेकर आया तो वह खामोश थीं। मैंने उनको पानी देना चाहा जो उन्होंने नहीं लिया। मैंने उनको आवाज़ दी। वह नहीं बोलीं, उनकी खामौशी बरक़रार रही। उनके इस प्रकार अचानक खामोश हो जाने से मैं परेशान हो गया। मैंने उनको फिर आवाज़ दी- बेगम- बेगम। वह नहीं बोलीं, फिर आवाज़ दी- बेगम- बेगम। वह नहीं बोलीं। मैंने उनसे कहा- आप बोलती क्यों नहीं हैं ?
वह फिर भी नहीं बोलीं।
अब मुझसे सब्र नहीं हुआ मैंने व्याकुल होकर उनको छू कर देखा, उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैंने नव्ज़ टटोली, जो नहीं चल रही थी। उनके दिल की धड़कन को सुना, वह भी खामोश थी। 
उनकी इस खामोशी के बाद मुझे पूरा यकीन हो गया कि वह मेरे चश्मा पाने की ज़िद को पूरा करने के लिए दूर बहुत दूर कनाडा या भगवान के पास चली गई हैं।
अचानक हुए इस हादसे के कारण मैं खुद को संभाल नहीं सका और पागलों की तरह अपनी क्षमता से कहीं अधिक ज़ोर ज़ोर से चीखते हुए रो-रो कर पुकाराने लगा- बेगम बेगम, आप ऐसा नहीं कर सकतीं। मुझे छोड़कर नहीं जा सकतीं, आप चली गयीं तो मुझे चश्मा कौन बनवाकर देगा। आप ही तो मेरी आंखें हैं। आप ही तो मेरा सहारा हैं। यह कहते हुए मैं गला फाड़कर चीख रहा था, क्योंकि मैं जानता था कि मेरी आवाज़ यहां कोई नहीं सुनने वाला है जो सुन सकता था वह अच्छे भविष्य की तलाश में कनाडा बेठा है। मुझे अपनी आवाज़ बेटे तक इसी वक़्त पहुंचाना जरूरी थी ताकि मेरी आवाज़ सुनते ही वह मुझे सोने के फ्रेम का चश्मा तुरंत भेज दे और मैं अपनी बेगम का आखरी दीदार उस सोने के फ्रेम वाले चश्मे से कर सकूं जो उनकी आखरी तमन्ना थी।
*****

मेरी हास्य-व्यंग्य रचनाएं अगर आपको पसंद आ रही हैं और आप चाहते हैं कि आपके साहित्यिक मित्र भी इनका आनन्द लें, तो उनको Share अवश्य करें। Comments Box में अपनी प्रतिक्रिया भी अवश्य लिखें।
शाहिद हसन शाहिद
70093-16992
Copyright reserved

Tuesday, March 30, 2021

मेरी संपत्ति

मेरा शरीर मेरी संपत्ति है। मैं इसको जिस प्रकार चाहूं रख सकती हूं। किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। यह शब्द उस लड़की के थे, जो देखने में एक मध्यवर्गीय परिवार की लग रही थी और मेरे पास नौकरी की तलाश में इंटरव्यू देने आई थी। पश्चिमी डिजाइन के कपड़ों में वह सुंदर लग रही थी। मैंने एक नज़र उस पर डाली और बैठने के लिए कुर्सी की ओर इशारा करके उसका सीवी पढ़ने लगा। शैक्षणिक योग्यता देखने के बाद जब मैंने कुछ प्रश्न पूछने के लिए उसकी ओर देखा, तो मैं यह देखकर हैरान रह गया की 21 वर्षीय इस लड़की की शर्ट में बटन नहीं थे और जो वह पहने थी उसका गला गहराई तक खुला हुआ था। जिस से उसके शरीर के खुले अंग साफ देखे जा सकते थे। जबकि वह इस दिगम्बर अवस्था में सजगता के साथ बैठी हुई थी।
मैंने अपनी नज़रें नीचीं रखते हुए उससे कहा- पहले आप अपने कपड़े ठीक कीजिए फिर आगे की बात करते हैं।
उसने बुरा सा मुंह बनाकर मेरी ओर देखा और पूछा- इसमें बुरा क्या है ? 
मैंने कहा- बुरा कुछ नहीं है फिर भी बेटियों का सम्मान हमारी संस्कृति है। इतना सुनकर उसने मेरी आंखों में आंखें डाल कर कहा- शहर में लगे बड़े-बड़े होल्डिंग पर नज़र आने वाली मॉडल के कपड़ों पर आपने कभी आपत्ति नहीं जताई ? उनको देखकर क्यों शांत हो जाते हैं आप और आपका सभ्य समाज। उन बड़े ब्रांड से क्यों नहीं कहा जाता कि हम तुम्हारे प्रोडक्ट का बहिष्कार कर रहे हैं, तुमने एक स्त्री को भरे बाज़ार में निर्वस्त्र किया है। 
उसका तर्क सुनकर मैंने कहा- देखो बेटी...! वह रंगों से बनी केवल एक छवि होती है, मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही उसनेे मुझे रोकते हुए कहा- पर वह छवि होती तो एक स्त्री की ही है।
मैंने फिर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा- उनमें भावनाएं नहीं होती हैं।
उसने फिर टोकते हुए कहा- परंतु वह भावनाएं जगाती तो है। 
जीवित औरत और तस्वीर में बहुत अंतर होता है, आप यह क्यों नहीं समझातीं। हाड- मास की महिला में भावनाएं भी होती हैं और सेक्स अपील भी। अक्सर देखा गया है कि महिला को अर्धनग्न देखकर बहुत से अमानुष्य अपने ऊपर निरंतर खो देते हैं और बलात्कार जैसे संगीन जुर्म हो जाते हैं। मैंने उसके तेवर देखते हुए समझाने की कोशिश की।
यह पुरुषों की समस्या है,उनकी बिमार मानसिता और परवरिश की समस्या है, स्त्री की नहीं। उसने भी तुरंत उत्तर देते हुए कहा। इतना कहकर वह कुछ क्षण के लिए खामोश हुई और एक गहरी सांस लेते हुए बोली- देखिए, अंकल...! पुरुष समाज को महिला के प्रति अपना दख्यानूसी दृष्टिकोण बदलना होगा विश्व गुरु ऐसे ही नहीं बना जाता इसके लिए समाज को एक बड़ी राष्ट्रवादी क्रांति सोच की आवश्यकता है जिसमें हम महिलाएं की हिस्सेदारी भी जरूरी है। 5 मीटर साड़ी में लिपटी महिला अब अपने हौसलों के साथ खुले आसमान में उड़ना चाहती है, जो उसका हक़ है उसको उसका हक़ मिलना चाहिए। फिर उसने मुझसे कहा-
पुरुष प्रधान समाज ने अपनी झूठी शान बनाए रखने के लिए महिला को बड़ी चतुराई से अपने शाब्दिक जादू से लज्जा व शर्म जैसे मायावी ज़ेवर पहना कर युगों से क़ेद कर रखा है। उसकी शारीरिक संपत्ति को कपड़ों से बनी गुफाओं में कैद रखने का एक प्रकार से अपराध किया है। इतना कहकर वह खड़ी हो गई, मैं समझा कि मेरे विचारों से वह नाराज़ हो गई है और अब मेरी झूठी सभ्यता पर थूक कर जा रही है। मैंने इस क्रांतिकारी लड़की को सर से पैर तक गौर से देखा। उसने भी मुझे देखते हुए देख लिया था। शायद इसलिए वह गई नहीं बल्कि बड़े आराम से कुर्सी पर बैठ गई और बोली- अंकल...! सच बताएं
आपने मुझमें क्या देखा।
मैंने कहा- कुछ खास नहीं देखा, केवल यह कि तुम एक आम सी दिखने वाली लड़की हो, जिसकी जींस घुटनों से ऊपर और घुटनों से नीचे फटी हुई है।
उसने कहा- इसके अतिरिक्त आपने क्या देखा ?
मैंने कहा- इससे ज्यादा कुछ नहीं देखा।
उसने कहा- यही बात मैं कहना चाहती हूं कि पुरूषों को महिलाओं को देखने का आपना दृष्टि कोण बदलना होगा। आपको मेरी फटी जींस के अतिरिक्त कुछ नज़र नहीं आया क्योंकि आप कुछ और देखना नहीं चाहते थे, जबकि कुछ लोग अपनी लालसा में बहुत कुछ तलाश करते हैं। उन लोगों को फटी जींस देखने की आदत डालनी होगी इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। फटे जींस जो आज का फेशन हैं। 
फिर उसने आगे कहना शुरू किया कि कुदरत ने किसी चीज़ को छुपा कर नहीं रखा है। हमने कपड़ों को डिजाइन करते समय मर्द और औरत में भेदभाव पैदा किया है। इस भेद भाव को समाप्त करना समय की आवश्यकता है।औरत की आजादी और सशक्तिकरण बहुत जरूरी है। देश के विकास में बाधा आ रही है। हम अपने देश को महिलाओं की आजादी के परिपेक्ष में जापान,फ्रांस,चाइना,इसराइल और अमेरिका की तुलना में बहुत पिछड़ा पाते हैं।
उसकी आक्रामकता को देखते हुए मेरी यह पूछने की हिम्मत ही नहीं हूई कि क्या वह उन महिलाओं की बात कर रही है, जो आजादी और पुरूष समानता के नाम पर आंदोलन करते समय पूरी तरह नंगी होकर सड़कों पर फोटो शूट कराती हैं। क्योंकि मैं विवाद नहीं चाहता था। फिर भी मैंने डरते डरते उससे पूछा- तुमको इस प्रकार रहने पर डर नहीं लगता ? 
उसने पुनः मुझसे पूछा- कैसा डर ? फिर उसने कहा- डर नाम की कोई चीज संसार में नहीं होती है, जहां विश्वास कमजोर पड़ जाता है वहां डर आ जाता है और लोग उसको धर्म कहने लगते हैं। इतना कहकर वह मुस्कुराई और बोली- आपके छुपे हुए प्रश्न का उत्तर यह है कि चोरियां तो बंद कमरों में भी हो जाती हैं। हमें चोरी से नहीं चोरों से लड़ना है। उसके तर्क और क्रान्तिकारी जज़्बात सुनकर मैं कुछ कहने की हालत में स्वयं को नहीं पा रहा था।
केवल इतना ही सोच रहा था कि वह कौन लोग हैं जो इन लड़कियों को अपने स्वार्थ के लिए दिशाहीन कर रहे हैं ? बेरोजगारी इसका मूल कारण तो नहीं है ? या नफरत का यह एक ऐसा सोचा समझा खेल है, जो राजनीतिक इशारों पर महिलाओं के हक़ के नाम पर खेला जा रहा है। बाजारवाद या महिला वोट बैंक को बढ़ावा देना जिसका मुख्य उद्देश्य है। एक विचार मेरे मन में यह भी आ रहा था कि अपने आदर्श,मान मर्यादा, उच्च धार्मिक विचार और संस्कारों की आध्यात्मिक खुशबू से पूरे संसार को सुगंधित करने वाला पिता आज अपनी ही मासूम बच्चियों का दुरुपयोग होता देख कर खामोश क्यों है ? गफलत में कूड़ेदान पर फेंकी गई वस्तु को दुबारा उठाने में संकोच केसा ?
सवाल गम्भीर हैं समाधान तलाश करना होगा। आप भी सोचिए मैं भी सोचता हूं।
*****
मेरी हास्य-व्यंग्य रचनाएं अगर आपको पसंद आ रही हैं और आप चाहते हैं कि आपके साहित्यिक मित्र भी इनका आनन्द लें, तो उनको Share अवश्य करें। Comments Box में अपनी प्रतिक्रिया भी अवश्य लिखें। 
शाहिद हसन शाहिद
70093-16992
Copyright reserved

Monday, March 15, 2021

पाठशाला

"आपने मुझे पाल-पोस कर कोई एहसान नहीं किया है, अपनी अय्याशी की क़ीमत चुकाई है।"
बेटे के मुंह से यह अनजान अल्फाज़ सुनते ही मैं हेरान रह गया क्योंकि यह भाषा ना तो मेरे परिवार की है और ना ही मेरे संस्कार ऐसे हैं। शब्द "अय्याशी" सुनकर मैं एक ऐसे शुन्य में परिवर्तित होता चला गया जिसके आगे और पीछे कोई संख्या ना हो। सिर्फ सवालों का ख़त्म ना होने वाला सिलसिला हो जो मुझे आंखें बंद करके सोचने पर मजबूर कर रहा हो कि मैं अपने अतीत के काले सायों को तलब करुं और उनसे पुछूं- ऐ काले सायों तुम गवाही दो कि अतीत में कभी ऐसा हुआ है कि मैंने गुस्से से पागल होकर अपने पूज्य पिता या परिवार के किसी सदस्य को  अपशब्द कहने का साहस किया हो ?        तो काले साए अपने हाथ खड़े करते हुए कहें- नहीं, कभी नहीं۔۔۔۔! हमने इस प्रकार पिता या परिवार वालों की तौहीन करते आपको कभी नहीं देखा। 
काले सायों की गवाही के बाद भी प्रश्न फिर भी वहीं खड़ा था कि मेरे बच्चे के मुंह में अय्याशी जैसा अपशब्द किसने डाला ? किस पाठशाला ने उसको यह शब्द सिखाया, और कौन है गुरु उसका ?
इन सवालों में उलझा ही था तभी मुझे याद आया कि मेरा बच्चा कल अपनी मां को समझा रहा था कि पेट्रोल और डिजल के दाम बढ़ने से देश का गौरव बढ़ा है यह राष्ट्रीय हित में है। तब मेरी समझ में आया कि उसका गुरु कोई और नहीं बल्कि वह स्मार्ट फोन है, जो मैंने ही उसको जन्मदिन पर उपहार में दिया था। 
स्मार्टफोन उसके हाथ में देते ही, मैं उसमें बहुत से बदलाव महसूस कर रहा हूं । मेरा शर्मिला बच्चा जो कल तक अपनी पेंट की खुली ज़िप की परवाह नहीं करता था, वह आज अपने फोन के लिए हर समय सतर्क रहता है। अगर किसी कारण फ़ोन का लाक खुला रह जाए या फोन इधर-उधर रखा जाए तो वह बेचैन ही नहीं होता बल्कि पागल हो जाता है। उसकी घबराहट और बैचेनी यह कहती है कि उसकी इस ज़रा सी चूक या लापरवाही के कारण मोबाइल में रखा हुआ उसका काला धन सार्वजनिक हो जायेगा और सरकार की नज़र पड़ते ही वह किसी बड़ी मुसिबत का शिकार हो जाएगा।    बच्चा अब बड़ी-बड़ी बातें भी करने लगा है। पहले से अधिक स्मार्ट और रहस्यमय भी हो गया है। उसकी रहस्यमय स्मार्टनेस देखकर ही मुझे अब अपनी गलती का एहसास हो रहा है कि मैंने बचपन की दहलीज़ पर खड़े अपने मासूम बच्चे के हाथ में समय से पहले स्मार्टफोन देकर अनजाने में उसकी ऊंगली समाज के उन लोगों को पकड़ा दी है, जो कभी उसकी पहुंच में नहीं थे, परंतु अब वे ही लोग फोन के माध्यम से उससे खेल ही नहीं रहे हैं बल्कि उन्होंने उसको सेल्फी वाले फोन से सेल्फी लेने का हुनर और रज़ाई में मुंह छुपा कर सपने देखना, खरीदना और बेचना भी बहुत कम समय में सीखा दिया है। इस हुनर ने ही उसको एक ऐसे बाज़ार का खिलाड़ी बना दिया है, जहां उसके नाम को लोग लाइक तो करते हैं पर नज़र नहीं आते। 
फोन ने उसको अपने एवं दूसरे धर्मों की वह गोपनीय बातें भी बता दी हैं जो उसके पूर्वजों ने परंपरा व समाज में सद्भाव बनाए रखने के लिए ना जाने कितने युगों से छुपा कर रखी थीं, जबकि वह जानते थे एक दिन जब बच्चे जवान होंगे तो यह जटिलताएं वह स्वयं ही जान जाएंगे। 
इतिहास का ज्ञानी भी वह हो गया है। परिवार को यह बताने का होंसला भी उसमें आ गया है कि हिंदुस्तान में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है, मुसलमान और ईसाईयों को इस देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है। यह लोग देश पर एक ऐसा बोझ हैं, जो बहुसंख्यक हिंदुस्तानियों पर उनकी इच्छा के विपरीत इस प्रकार लाध दिए गया है जिस प्रकार धोबी अपने गधे पर हर धर्म के कपड़े उसकी इच्छा के विरुद्ध लाध देता है।
सोशल मीडिया, जिसको वह पूज्य पाठशाला की तरह आदर करता है, उसको यह पाठ पढ़ाने में भी सफल हो गई है कि उसके देश को सेकुलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्षता के कैंसर ने बर्बाद किया है। वह यह भी जानता है कि यह वायरस पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने स्वार्थ के लिए पैदा किया था। किसी अवसर पर मेरे पूछने पर उसने कहा था कि जवाहर लाल नेहरू कौन थे, यह वह नहीं जानता है और ना ही जानना चाहता है, परंतु वह किसके इश्क में मुब्तिला थे और उनकी नूरजहां कौन थी यह सच्चाई वह अच्छी तरह जानता है। 
महात्मा गांधी के चरित्र और उनकी लीलाओं की सच्चाई के बारे में भी उसको सब कुछ पता है। इस लिए अब उसने अपना आइडियल बदल लिया है।
आज़ादी से पूर्व और बाद में देश को धोखा देने वाले देशद्रोही और राष्ट्रप्रेमी कौन लोग हैं, यह सच्चाई भी वह भली-भांति जान चुका है। 
राष्ट्रवाद के शिकार मेरे बेटे ने परिवार और समाज से दूरी बनाना बना ली है उसे अब हर व्यक्ति राष्ट्रद्रोही नज़र आ रहा है। उसने मुझसे भी बात करना कम कर दिया है या तो वह मुझे राष्ट्रद्रोही समझने लगा है या अपने से कम ज्ञानी या फिर एक ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी अय्याश के कारण बच्चों की फोज खड़ी कर दी है। 
अंततः मैं यह कहने के लिए विवश हूं कि स्मार्टफोन ने मेरे बेटे से उसकी बचपन की मासूमियत छीन ली है। लोगों का कहना है कि संसार सिमटकर एक गांव कि तरह हो गया है, जबकि मेरा बेटा परिवार और समाज से कटकर एक नए संसार में खो गया है, जो उसकी पैंट की बैक पाकिट में बस्ती है। यह पाकिट ही अब उसका परिवार, समाज, देश, धर्म, पाठशाला और समस्त संसार होकर रह गई है। इसी पाकिट के संसार ने उसको सिखाया है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हारा लालन-पालन करके तुम्हारे ऊपर कोई उपकार नहीं किया है बल्कि अपनी अय्याशी की कीमत चुकाई है।
स्मार्टफोन ने मेरा जवान बेटा चुरा लिया है। मैं बेटे को खोकर अपनी भूल की भारी क़ीमत चुका रहा हूं, शायद मेरी तरह ही देश के सारे पिता अपने बच्चों के चोरी होने की कीमत चुपचाप चुका रहे हैं।
*****
मेरी हास्य-व्यंग्य रचनाएं अगर आपको पसंद आ रही हैं और आप चाहते हैं कि आपके साहित्यिक मित्र भी इनका आनन्द लें तो उनको Share अवश्य किजिए और Blog Comments Box में अपनी प्रतिक्रिया लिखना ना भूलें।
धन्यवाद सहित 
शाहिद हसन शाहिद
70093-16992
Copyright reserved

Sunday, February 28, 2021

आतंकी कौवे

वह एक ऐसा साधु है जो शनी और मंगल के प्रकोप से मुझे बचाने और मेरी हर मनोकामना पूरी करने के उद्देश्य से सप्ताह में कई बार मुझसे सरसों का तेल, काली दाल ले जाता है। इसके अतिरिक्त भी वह नित्य नए बहानों से मोटी रक़में मेरी जेब से निकालने का मास्टर है। अपनी इस अनोखी कला के कारण ही कभी कभी वह मुझे वित्त मंत्री लगने लगता है, रक़म ठगते समय वह राष्ट्रीय हित का सहारा लेकर मुझे भावुक बनाने में सफल हो जाता है और मैं हर बार उसके हाथों मुर्ख बन जाता हूं। एक आम आदमी जो मैं ठहरा। झोला छाप वह एक ऐसा साधु है जो मुझे यह विश्वास दिलाने में सफल है कि मेरा दिया हुआ दान मेरे विकास और मेरी जान माल की हिफाजत की फुल फलेज गारंटी है और साधु स्वयं मेरी हर इच्छा पूरा करने के लिए वचनबद्ध है। दान की इस शक्ति को समझते हुए मैं साधु महाराज का एक प्रकार से अंध भगत बन चुका हूं जो स्वयं को बड़ा भाग्यशाली और गोरवान्वित महसूस करता है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैंने साधु पर विश्वास के रूप में एसबीआई में एक बड़ी रकम फिक्स डिपॉजिट कर रखी हो, जिसको मैं जब चाहूं, जहां चाहूं, जितना चाहूं कैश करा सकता हूं।
एक दिन मैंने साधु की वचनबद्धता को परखने के तौर पर उससे कहा- महाराज मेरे मन की इच्छा तो यह है कि मैं देश का प्रधानमंत्री बनूं परंतु देश की परिस्थितियों को देखते हुए अब मैं यह चाहता हूं कि आप मुझे केवल "निठल्ला" बनने का वरदान दें।
मेरी अजीब सी इच्छा सुनने के बाद साधु ने कहा "निठल्ला" तो मैं तुमको बना दुंगा परन्तु पहले तुम्हें राष्ट्र हित में एक काम करना होगा। मैंने पूछा वह क्या है ? 
साधु ने तुरन्त कहा- खुले आकाश में उड़ने वाले उन काले कौवों को भगाना होगा जिनकी कांव-कांव ने देश के शांतिपूर्ण माहौल को दूषित कर रखा है।
साधु के इस सुझाव को मैं समझ नहीं सका कि वह ऐसा क्यों कह रहा है कि मैं निठल्ला बनने से पहले कौवे उड़ाऊं। साधु ने तो मुझे विश्वास दिलाया था कि वह मेरी हर मनोकामना पूरी करने की शक्ति रखता है, सो मैंने निठल्ला बनने की अपनी इच्छा कह दी तो यह कंडिशन एप्लाई शर्तें कहां से आ गयीं ? 
स्वाभाविक तो यह था कि साधु मुझसे पूछता कि अचानक तुमने प्रधानमंत्री बनने की अपनी चाहत से मुंह क्यों मोड़ लिया?
"निठल्ला" बनने का विचार तुम्हारे मन में कहां से आ गया?
यह शब्द तुमने कहां से सिखा? 
जिसके उत्तर में, मैं उसको बताता कि यह शब्द मैंने किसान आंदोलन से सिखा है और वहीं से मैंने यह भी जाना है कि आजकल देश निठल्लों को काफी इज़्ज़त की निगाह से देख रहा है। निठल्लों का ग्राफ शेयर मार्केट की तरह उछालें मार रहा है। इसी गर्व को ग्रहण करने की ख्वाहिशों ने मुझे यह साहसी फेसला लिने पर मजबूर किया है। परंतु जुमले बाज़ साधु ने मेरी हसरत पर पानी फेरते हुए बड़ी चतुराई से मुझे असल मुद्दे से भटका कर मेरा सामना काले कौवों से करा दिया जिनको वह आतंकवादी समझता है। 
अब मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि साधु के बताए आतंकियों को कहां तलाश करूं। साधु किन आतंकियों की बात कर रहा है। 
कहीं उसका इशारा उन कौवों की ओर तो नहीं है जो गत चार पांच वर्ष में देश के कौने कौने में कभी किसान आंदोलन जीवी बनकर,कभी आतंकवादी जीवी, कभी नक्सलवादी जीवी, कभी अर्बन नक्सलवादी जीवी, कभी टुकड़े टुकड़े गेंग जीवी,कभी मजदूर जीवी,कभी व्यापारी जीवी,कभी निम्न व मध्य वर्गीय जीवी,कभी शिक्षक जीवी, कभी सहायक शिक्षक जीवी, कभी पाकिस्तानी जीवी, कभी चाइनीज़ जीवी, कभी लव जिहाद जीवी, कभी तीन तलाक़ जीवी, कभी सीए विरोधी जीवी, कभी एन आर सी विरोधी जीवी, कभी जयश्री राम विरोधी जीवी, कभी डॉक्टर जीवी, कभी नर्स जीवी, कभी प्रोफेसर जीवी, कभी विद्यार्थी जीवी, कभी आंगन वाड़ी वर्कर जीवी और ना जाने किस किस रूप के आंदोलन जीवी कौवे बनकर देश के आकाश में कांव कांव करते सुनाई दे रहे हैं। इन कौवों तक पहुंचते ही मेरी हालत अब कुछ इस प्रकार हो गई है कि जब मैं सोता हूं तो मुझे सपने में कौवे नज़र आते हैं। जागता हूं तो मुझे हर व्यक्ति कौवा जैसा दिखाई देता है और मैं उसके चेहरे पर कौवे की नुकेली चोंच देखकर नफरत से मुंह मोड़ लेता हूं। निगाहें हर समय आसमान और ज़मीन पर नए नए कौवे तलाश करती रहती हैं। विपक्ष का तो हर नेता मुझे कौवा ही नज़र आता है। 
कौवों के इन माया जाल से जितना खुद को आज़ाद कराना चाहता हूं उतना ही उसमें फंसता जा रहा हूं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि अपनी इस हालत के लिए किसको जिम्मेदार ठहराऊं.....?
खुद को.....?
अपनी इच्छा को.....?
साधु को.....?
या कौवों को.....?
राष्ट्रहित में किसी को तो यह जिम्मेदारी लेनी ही होगी। 
मुजरिम कोई तो है इन परिस्थितियों का। 
ऐसा मुजरिम जिसको माफ नहीं किया जा सकता। 
*****
मेरी हास्य-व्यंग्य रचनाएं अगर आपको पसंद आ रही हैं और आप चाहते हैं कि आपके साहित्यिक मित्र भी इनका आनन्द लें तो उनको Share किजिए। Comments Box में अपनी प्रतिक्रिया 
अवश्य लिखें। धन्यवाद सहित 
शाहिद हसन शाहिद
70093-16992
Copyright reserved


Monday, February 15, 2021

अफवाह जीवी

काला कुर्ता,गले में भगवा गमछा और माथे पर लाल तिलक लगाए जब वह सड़क पर इतराते हुए निकलता तो देखने वाले दंग रह जाते। लोगों को महसूस होता कि सड़क पर कोई आंदोलनन जीवी नहीं बल्कि पूरा आंदोलन दौड़ा चला आ रहा है।
जीव जैसा दिखने वाला यह व्यक्ति था बहुत ही चुस्त व चालाक। हाथ नचा-नचा कर बात करने और जुमले वाज़ी का वह ऐसा हुनर जानता था कि अच्छे-अच्छे मदारी उसके सामने पानी भरते नज़र आते। उसके चाहने वालों का एक बड़ा ग्रुप था जो उसको पप्पू कह कर बुलाता था, जिसका वह कभी बुरा नहीं मानता था। 
पप्पू ने "अफवाह जीवी" नाम का एक क्लब बना रखा था। यह अपनी तरह का ऐसा क्ल्ब था जो नए और पुराने चुटकुलों को नए अर्थ और नए जुमलों से सजाकर मनोरंजित बाजार में उतार कर लोगों को मुस्कुराने के लिए मजबूर करता था।
इस अनोखी पैदावारी यूनिट का पप्पू ऐसा चेयरमैन था जो लोगों की फरमाइश पर अपनी फेक्ट्री का तैयार चुटकुला उसी समय सुनाकर आगे बढ़ जाता। यही उसकी दिनचर्या थी। आज भी उसने लोगों की फरमाइश पर एक चुटकुला सुनाया जो कुछ इस प्रकार था....
एक बुद्धिजीवी बहुत बड़ा पत्नी प्रेमी था जो हर समय पत्नी की सेवा में लगा रहता और उसको मेरी सरकार, मेरी सरकार कहकर खुश रखने की कोशिश करता रहता था। जबकि पत्नी उसको आम जनता की तरह बुध्दूजीवी से अधिक भाव नहीं देती थी। पत्नी का चरित्र बड़ा विवादित था। वह अपने बुध्दू पति से अधिक अपने घनिष्ठ मित्रों को तवज्जो देती थी। लोगों की निगाह में वह एक दिशाहीन पत्नी थी,जो अपने कुछ मित्रों के साथ बने संबंधों को लेकर काफी बदनाम थी। पत्नी के तर्क अनुसार यह उसकी नवीनतम जीवन शैली का एक ऐसा पक्ष था जिस पर किसी को कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए। 
पत्नी के इस रवैये और लोगों के तानों से वह व्यक्ति काफी दुखी और डिप्रेश रहता था। उसने अपनी पत्नी को बार-बार समझाया कि तुमने अपने लिए जो रास्ता चुना है वे ठीक नहीं है। दूसरे पुरुषों से इस प्रकार खुलेआम संबंधों रखना हमारा पारंपरिक समाज स्वीकार नहीं करता है। कुछ पर्दा रहना चाहिए। खुलेपन की इस अंधी दौड़ से तुुम बाहर आओ और अपनी इस खराब आदत को छोड़ कर एक संस्कारी पत्नी की तरह मेरे दिल की सरकार और मेरा स्वाभिमान बनकर रहो।
दिशाहीन पत्नी पर इन बातों का कोई असर नहीं था और वह अपनी हरकतें छोड़ने को तैयार नहीं थी। उस व्यक्ति के घनिष्ठ मित्र उसकी इस परिवारिक समस्या को जानते थे परन्तु वे इस संबंध में उसकी कोई सहायता नहीं कर पाते क्योंकि वे जानते थे कि यह उसका आंतरिक घरेलू मामला है।
एक दिन अचानक वह व्यक्ती खुश-खुश अपने मित्रों के पास पहुंचा। 
मित्रों ने जब उसका खुशी से हो रहा लाल चेहरा देखा तो वे समझ गए कि कोई अच्छी खबर है, जो वह उनको सुनाने वाला है।
मित्रों ने उत्सुकता दिखाते हुए उससे कई सवाल एक साथ पूछ डाले- उन्होंने पूछा- क्या भाभी ने तुम्हारी नसिहत मान ली है, क्या उन्होंने अपने चरित्र को ठीक करने का निर्णय ले लिया है, क्या उन्होंने अपने आवारा मित्रों को छोड़कर तुम्हारे साथ एक वफादार पत्नी की तरह रहना स्वीकार कर लिया है?
मित्रों के सवाल सुनकर उस व्यक्ति ने एक गहरी सांस ली और कहा-ऐसा कुछ नहीं हुआ है। सब कुछ पहले जैसा ही है वह अपनी ज़िद पर अभी भी कायम है।
मित्रों ने पूछा तो फिर तुम्हारी खुशी का राज़ क्या है?
उसने गंभीर होते हुए कहा-मैंने खुश रहने का आसान रास्ता तलाश कर लिया है।
मित्रों ने पूछा- वह रास्ता क्या है? 
उसने कहा- मैंने अपनी सोच बदल ली है।
मित्रों ने कहा- हम समझे नहीं?
उसने कहा-मेरी बदली हुई सोच अब यह कहती है कि मेरी पत्नी जिसको मैं प्यार से "सरकार" कहता हूं वह समाजिक तौर पर धर्म पत्नी तो मेरी है परंतु फील गुड उससे आजतक उसके धनवान मित्र लेते रहे हैं। अब मेरी नई सोच के अनुसार आज से मैं यह सोचूंगा कि वह पत्नी तो उन धनवान लोगों की ही है परंतु जब भी मुझे अवसर मिलेगा मैं "फील गुड" का मज़ा उठाउंगा। 
इतना कहकर पप्पू आगे बढ़ गया। लोग हंसते रहे किसी ने यह नहीं सोचा कि पप्पू ने जवाहर लाल नेहरू के ज़माने के पुराने चुटकुले को किस सुन्दरता के साथ अपनी जुमले बाज़ी की महारत से आज का सच बना दिया था।
*****
मेरी हास्य-व्यंग्य रचनाएं पसंद आ रही हों और आप चाहते हैं की आपके साहित्य प्रेमी मित्र भी
इनको पढ़ें तो उनको share करें 
 comments box में अपनी प्रतिक्रिया 
अवश्य लिखें। धन्यवाद सहित 
शाहिद हसन शाहिद
+91 70093-16992
Copyright reserved

Saturday, January 30, 2021

मासूम पोती


टेलीविजन पर पूरे दिन बलात्कार की खबरें और उनपर पर होने वाली डिबेट सुनते सुनते जब मैं थक गया,तो खुद को तरोताज़ा करने के लिए आंखें बंद करके आराम से सोफे पर पैर फैला कर बैठ कर सोचने लगा कि बाज़ार वाद के बढ़ते प्रभाव और पत्रकारिता के बदलते स्वरूप ने हमको यह किस मुक़ाम पर ला खड़ा किया है कि कल तक जिस कन्या को हम देवी की तरह पूजा करते थे, जिस को हम घर की लक्ष्मी कहते थे,जो महिला परिवार की इज़्ज़त व आबरू हुआ करती थी, जिसके कदमों के नीचे बच्चे अपनी जन्नत तलाश करते थे,आज उसी देवी को लोगों ने अपनी हवस की पूर्ती की वस्तु विशेष और प्रयोग करके फेंकने वाला नेपकिन बना दिया है। मैं समझ नहीं पा रहा था कि हमारा नेशनल मीडिया बलात्कार से संबंधी समाचार देश के कोने-कोने से ढूंढ ढूंढ कर क्यों लाता है? फिर उस समाचार को डिबेट के माध्यम से चटकारेदार बनाकर उसमें धार्मिक,राजनीतिक एवं विपक्ष को घेरने के पहलू तलाश करने या किसी एक जाति विशेष के साथ जोड़ कर नेशनल लेवल पर इस प्रकार परोसता है, जैसे यह कोई क्राइम ना होकर देश के विरुद्ध सोचा समझा रचा गया षड्यंत्र हो। नेशनल टीवी द्वारा इस गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग के बारे अभी मैं विचार कर ही रहा था कि मेरी पोती जो 6 वर्ष की है मेरे पास आई और मुझे झंझोड़ते हुए कहने लगी- दादू आप सो रहे हैं? मैंने अपनी आंखें खोलते हुए कहा-
 बेटा मैं तो जग रहा हूं। उसने कहा- मुझे आपसे कुछ पूछना है।मैंने उसको प्यार से गोद में बैठाते हुए बड़े स्नेह भरे अंदाज में पूछा- मेरे बेटे को दादू से क्या पूछना है पूछो।उसने बड़ी मासूमियत से शिकायती अंदाज में कहा- दादू...! मुझे कोई नहीं बता रहा है कि "बलात्कार" क्या होता है।मैं समझ गया कि निरंतर चलने वाले टीवी समाचारों में यह शब्द वह बार-बार सुन रही है,जबकि उसको अभी पूरी तरह भाषा का ज्ञान नहीं है, इस कारण उसकी भाषा सीखने की जिज्ञासा जाग गई है और वह बलात्कार शब्द का अर्थ समझना चाहती है परंतुु मेरे सामने उसका यह प्रश्न एक नाग की तरह फन फैलाए खड़ा था कि मैं इस मासूम को किन शब्दों में बताऊं कि बलात्कार क्या होता है।मैंने उसकी आयु और भोलेपन को देखते हुए उसको यह बताना ही उचित समझा कि मैं उस से यह कहूं कि बेटा यह एक प्रकार का बुखार होता है जो केवल महिलाओं को दुखी करता है। यह कहकर मैंने बच्ची को तो बहला दिया; परन्तु मैं अंदर से डर गया। मुझे डर इस बात का था कि भविष्य में जब कभी इसको बुखार आ गया तो यह पूरे मोहल्ले में शोर मचा देगी कि मेरा बलात्कार हो गया है। अभी मैं अपने इस अनजाने डर से उभर भी नहीं पाया था कि उसने एक और प्रश्न मुझसे पूछ लिया। दादू...! बलात्कारी कौन होता है?पहला गलत उत्तर देकर मैं बुरी तरह फंस चुका था, इसलिए मैंने दूसरा झूठ बोला और कहा- जिस मच्छर के काटने से बुखार आता है उसको बलात्कारी कहा जाता है।अब मैं समझ चुका था कि देश के दूरदराज़ गांव में किसी बच्ची के साथ हुए बलात्कार और बर्बर हत्या पर पूरे दिन चलने वाली मीडिया ट्रायल को सुनकर उसका मासूम ज़हन बहुत से प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए बेचैन है। मेरे उत्तर से पोती संतुष्ट नहीं थी। उसने तर्क देते हुए मुझे से फिर पूछा- दादू मम्मा तो जब मच्छर मारने की क्रीम हमको लगाती है तो कहती है कि इसके लगाने से मच्छर मर जाते हैं। मैंने टीवी में अभी-अभी देखा है कि लोग चीख चीख कर कह रहे थे कि बलात्कारी को फांसी दो।दादू...! मच्छर तो क्रीम लगाने से मर जाता है, तो उसको फांसी क्यों दी जाए? पोती के श्रंखला वद सवालों में से इस सवाल का मैं कोई उत्तर नहीं दे सका। बल्कि एक झटके के साथ सोफे से खड़ा हो गया और चीख़ते हुए परिवार वालों से कहा- सब लोग कान खोल कर सुन लो,आज के बाद कोई व्यक्ति टीवी पर बलात्कार से संबंधी समाचार या डिबेट नहीं सुनेगा। भारत पूछता है तो पूछता रहे, हर सवाल का जवाब देना हमारी जिम्मेदारी नहीं है। यह कहते हुए मैंने घरवालों पर समाचार ना सुनने का फरमान जारी करते हुए उन पर ख़बरें ना सुनने का प्रतिबंध लगा दिया। यथार्थ का शायद यही सच है। इससे अधिक मैं या आप कुछ नहीं कर सकते। टीवी द्वारा खेले जा रहे टीआरपी के खेल के सामने हम और आप सब बोने जो साबित हो रहे हैं।  *****
मेरी हास्य-व्यंग्य रचनाएं पसंद आ रही हों और आप चाहते हैं की आपके साहित्य प्रेमी मित्र भी
इनको पढ़ें तो उनको share करें और comments box में अपनी प्रतिक्रियाअवश्य लिखें। 
धन्यवाद सहित
शाहिद हसन शाहिद
Copyright reserved

Wednesday, January 20, 2021

कहानी मछली की

सोशल मीडिया से होती हुई एक सूचना जैसे ही समाचार पत्रों की सुर्खियों तक पहुंची कि एक मछली के पेट पर पीले रंग से लिखा शब्द "अल्लाह" साफ तौर पर पढ़ा जा सकता है, तो लोगों की सोई हुई आस्था एकदम जाग उठी और लोग दूर-दूर से इस अनोखी मछली को देखने के लिए उस जगह पहुंचने लगे जहां यह अद्भुत मछली अपनी भरपूर शानो शौकत के साथ एक छद्म तालाब जिसको इकोरियम कहा जाता है उस में तैर रही थी।

मैं जब वहां पहुंचा तो इकोरियम के आसपास लोगों की काफी भीड़ जमा थी, जो मछली को बड़े आदर और सम्मान के साथ देख रही थी। उनमें से कुछ श्रद्धालु आंखें बंद करके दिल ही दिल में उस मछली का आशीर्वाद प्राप्त करने और अपनी मनोकामना पूरी करने की अरदास कर रहे थे। कुछ शांत स्वभाव के साथ उसके दर्शन करके स्वयं को भाग्यशाली समझ रहे थे। वहां मोजूद कुछ धनवान ऐसे भी थे जो इस अद्भुत चमत्कार की बोली लगाकर उसको खरीदना चाहते थे, वे जानते थे कि मछली एक मध्यवर्गीय परिवार की संपत्ति है जिसको वह कुछ रुपए खर्च करके आसानी से खरीद कर अपने ड्राइंग रूम की शोभा और समाज में अपना गौरव बढ़ा सकते हैं। जो लोग इस मछली को खरीदने की क्षमता नहीं रखते थे वह दूर खड़े होकर कह रहे थे कि हमारे तो दिल में "अल्लाह" बसता है, हम तो क़ुदरत के इस करिश्मे को देखने आए हैं। कुछ ऐसे भी थे जो इकोरियम के शीशे पर इत्र (खुशबू) लगाने की कोशिश कर रहे थे, तो कुछ लोग दूर खड़े होकर धूप अगरबत्ती जलाकर रूहानी वातावरण बना कर अपनी श्रद्घा पेश कर रहे थे। धार्मिक विद्वान भी वहां मौजूद थे जो लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि हमें क़ुदरत के इशारे पर गौर करना चाहिए जो हमको याद दिला रहा है कि दुनिया की हर चीज़ का मालिको मुख्तार अल्लाह है। जबकि कुछ ऐसे भी थे जिनका कहना था यहां जो कुछ भी हो रहा है यह सब पाखंड है जिसको दूसरे शब्दों में बिद'त कहा जाता है।अल्लाह हम सबको इस गुनाहे अज़ीम से महफूज रखे। (इस्लाम जिन चीजों की इजाज़त नहीं देता है वे बिद'त कहलाती हैं।)

इन सब से अलग मैं यह सोच रहा था कि मछली के पेट पर नज़र आने वाला लफ्ज़ "अल्लाह" जीव रसायन की एक प्रक्रिया है, जो कभी भी डिलीट हो सकती है; परंतु जो डिलीट नहीं हो सकता है वह हमेशा रहने वाला नाम "अल्लाह" है जि‌को हम अपने ज़हन की किसी डिस्क में सेव करके भूल चुके हैं। विचारों के इस भंवर में डुबकी लगाते हुए मैंने देखा कि कुछ पत्रकार अपने कैमरों से उस नींबू मिर्ची के टोटके को कवर कर रहे हैं, जो कुछ समय पहले तक वहां नहीं था; परंतु अब वह उस ड्राइंग रूम के द्वार पर एक पहरेदार की तरह लटक रहा था जहां वह अद्भुत मछली लोगों की श्रद्धा का केंद्र बनी हुई थी। तभी मेरा ध्यान उस महिला पत्रकार पर गया जो लाइव रिपोर्टिंग करते हुए अपने दर्शकों को बता रही थी कि इस अनोखी जलपरी ने लोगों में आस्था कि वह ज्योत जगा दी है जो इससे पहले अतीत में राम मंदिर अभियान के समय देखी गई थी। लोग इस जलपरी को भगवान का अवतार मान रहे हैं। उन्होंने उसकी विधिवत तौर पर पूजा-अर्चना भी शुरू कर दी है। जलपरी को कोई हानि न पहुंचे इसके भी पुख्ता प्रबंध कर लिए गए हैं, जहां यह जलपरी विराजमान है वहां नींबू मिर्ची लटका दिया गया है और लोगों से कहा जा रहा है कि वह जलपरी के आसन से दूरी बनाकर रखें।उसको छूने या किसी प्रकार की हानि पहुंचाने की कोशिश ना करें। जलपरी देश की धरोहर है। इसने भारत में प्रकट होकर पड़ोसी देश को जता दिया है कि अब उनका एकमात्र सहारा "अल्लाह" भी उनके साथ नहीं है। अंगारों की शैय्या पर लौटने वाला पड़ोसी देश इस देव्या चमत्कार से बुरी तरह बौखला गया है। वह इस सच्चाई को पचा नहीं पा रहा है कि "अल्लाह" ने उसका साथ छोड़ कर उस देश को क्यों चुना है जहां कण-कण में राम बसते हैं। अपनी जनता का ध्यान अपनी नाकामियों पर से हटाने के लिए वह कोई भी नापाक हरकत कभी भी कर सकता है। अगर ऐसा हुआ तो हम उस को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए तैयार हैं। हम उसकी ईंट से ईंट बजा देंगे। उसको याद रखना होगा कि 130 करोड़ भारतीयों के साथ अब उस जलपरी की भी अपार शक्ति हमको प्राप्त है जिस पर खुद भगवान ने अपने हस्ताक्षर करे हैं।

लाइव टेलीकास्ट होने वाली इस रिपोर्ट ने मुझे व्याकुल कर दिया और उत्तेजित भी। मैं समझ नहीं सका कि यह किस प्रकार कि रिपोर्टिंग हो रही है तभी मेरे अंदर का पत्रकार जाग उठा और मैंने उस रिपोर्टर को इशारे से एक ओर बुलाकर कहा- यह क्या कर रही हो? उसने कहा- अपनी जॉब कर रही हूं कोई आपत्ति है।
मैंने कहा- हां...! आपत्ति है, एक जिम्मेदार वरिष्ठ नागरिक और पत्रकार होने के नाते मैं पूछना चाहूंगा कि यह तुम किस प्रकार की रिपोर्टिंग कर रही हो? एक साधारण सी बात को तुमने असाधारण बनाते हुए पहले तो उसका ध्रवीकरण किया और अब दो देशों को जंंग के मुहाने पर खड़ा करने का दुस्साहस कर रही हो, तुम जानती हो जंग.... अभी मैं इतना ही कह पाया था कि उसने कहा- मुझे मेरा काम करने दीजिए। 
यह कहते हुए वह मेरे पास से चली गई और मछली को फोकस करते हुए लोगों को एकबार फिर बताने लगी, आप अद्भुत चमत्कार को देख सकते हैं कि कुछ समय पहले जलपरी पर जो शब्द पीले रंग से लिखा दिख रहा था अब उसका रंग हल्के हल्के केसरी होता जा रहा है। 

पत्रकारिता के इस अंदाज को मैं क्या नाम दूं यह मेरी समझ से परे था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह किस प्रकार की पत्रकारिता है? सवालों के इस मकड़ जाल ने मुझे एक भावहीन स्तंभ बना दिया था, जिसमें से केवल एक ही आवाज़ मुझे गूंजती सुनाई दे रही थी कि यह युवती जब अपने घर परिवार के लिए भोजन बनाती होगी तो वह कितना स्वादिष्ट होता होगा। मज़ेदार, चटखारेदार बिल्कुल इस समाचार की तरह।
*****
मेरी हास्य-व्यंग्य रचनाएं पसंद आ रही हों और आप चाहते हैं की आपके साहित्य प्रेमी मित्र भी इनको पढ़ें तो उनको share करें और comments box में अपनी प्रतिक्रिया 
अवश्य लिखें। धन्यवाद सहित 
शाहिद हसन शाहिद
70093-16992
Copyright reserved

Sunday, January 10, 2021

फेसला देश का

मैं सुबह 5:00 बजे जब घर से सैर करने के लिए निकला तो धुंध इतनी अधिक थी कि हाथ को हाथ नज़र नहीं आ रहा था कुछ अंधेरा भी था। आजकल सूर्य उदय सुबह 7:00 बजे के बाद हो रहा था। अंधेरे और धुंध से लड़ता हुआ जब मैं गार्डन की ओर बढ़ा जा रहा था तब मैंने देखा कि कुछ लोग तेज़-तेज़ क़दमों के साथ वापिस घर की ओर दौड़े जा रहे हैं, इन भागने वालों में खास बात यह थी कि सब के हाथों में शराब की बोतलें थीं, इनमें कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके दोनों हाथों और कोट की जेब में भी बोतलें नज़र आ रही थीं। मुझे बड़ी हैरानी हुई कि इतनी सुबह यह लोग इतनी बड़ी संख्या में शराब कहां से ला रहे हैं। तभी मैंने देखा कि उनमें से एक व्यक्ति ने अपने एक साथी को रोक कर उसके कान में कुछ कहा तो वह व्यक्ति भी तेज़ी के साथ सड़क की दूसरी ओर दौड़ने लगा। मैंने दौड़ते हुए उस व्यक्ति को रोकते हुए पूछा- भाई क्या हुआ कहां भागे जा रहे हो? उसने कहा कि हाईवे पर एक्सीडेंट हो गया है वहीं जा रहा हूं। एक्सीडेंट का सुनकर मैं भी स्वयं को रोक नहीं सका और दौड़ाता हुआ हादसे की जगह पहुंच गया। वहां पहुंच कर मैंने देखा कि एक व्यक्ति जो कार चला रहा था वह  
जख्मी अवस्था में ड्राइवर की सीट पर बेहोश पड़ा है। जबकि उसकी कार के चारों पहिये गायब हैं और वह ईंटों से बने प्लेटफार्म पर खड़ी है। मैं कार के जब और ज्यादा करीब पहुंचा तो मैंने देखा कि उसकी ऐसिसरीज़ भी गायब हैं और कार के चारों तरफ शराब की पेटियों के खाली डिब्बे बिखरे पड़े हैं। मैंने जब जख्मी का मुआयना किया तो उसको जीवित पाया। करीब ही एक व्यक्ति को उल्टी करते देखा शायद उसने अपने जीवन में पहली बार किसी व्यक्ति को इतना जख्मी देखा होगा। कुछ लोग इस हादसे पर अपनी प्रतिक्रिया यह कहते हुए भी सुने गए कि यार सुबह- सुबह मूड खराब हो गया। घायल की स्थिति कुछ ऐसी थी कि उसको अकेले कार से नहीं निकाला जा सकता था। मैंने आगे बढ़ कर लोगों से कहा- आप लोग क्या देख रहे हैं? कुछ लोग मिलकर घायल को निकालते क्यों नहीं यह अभी जिंदा है। मेरी बात सुनकर कुछ लोग यह कहते हुए वहां से खिसक गए कि हम पुलिस के लफड़े में नहीं पड़ना चाहते, सब कुछ तो लोग लूट कर ले गए हैं हम कहां तक जवाब देते फिरेंगे। मैं अकेला उसकी जिंदगी बचाने में असमर्थ था इसलिए मैंने बगैर देर किए लगभग सुबह 6:00 बजे पुलिस को फोन किया और हादसे का पूरा विवरण उनको बताया और यह भी बताया की एक्सीडेंट सड़क किनारे खड़े एक ट्रक से टकरा जाने से हुआ है जो अनुमानुसार लगभग सुबह 4:00 बजे हुआ होगा। मैंने पुलिस को यह भी बताया कि एक व्यक्ति बुरी तरह घायल है जो अभी जिंदा है जिसको फोरी मेडिकल ऐड द्वारा बचाया जा सकता है। मेरी सूचना प्राप्त होने के दो घंटे बाद 13 किलोमीटर का सफर तय करके मुक़ामी पुलिस लगभग 9:00 बजे घटनास्थल पर पहुंची। जरूरी कार्रवाई करने के बाद जब पुलिस 16 किलोमीटर दूर उस घायल को अस्पताल लेकर पहुंची तो उस समय तक घायल दम तोड़ चुका था।
मैं और कुछ लोग पुलिस के साथ सहानुभूति के तौर पर अस्पताल तक गए। पुलिस ने हमारे सामने जब मृतक की तलाशी ली तो उसका पर्स, मोबाइल, हाथ की घड़ी या कोई भी पहचान पत्र ऐसा नहीं मिला जिससे उसकी पहचान हो जाती, तभी साथ गए किसी व्यक्ति ने कहा कि घायल के कपड़े बता रहे हैं कि वह शराब का तस्कर होगा उसकी बात का बाकी लोगों ने भी समर्थन किया फिर उसने अपनी बात पर मोहर लगाते हुए कहा कि ऐसे देशद्रोही का यही अंजाम होना चाहिए।
कपड़ों से हुई इस पहचान और फेसले को सुनकर मैं अपना सर पकड़कर बैठ गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मेरे देश को यह क्या हो गया है कि लोग कपड़ों से लोगों को पहचान कर फेसले भी लेने लगे हैं। मेरे दिल में अचानक यह ख्याल आया कि जंगल राज में ऐसा ही होता है। कोई एक बहुबली जंगल का शेर बनकर शिकार करता है फिर उस मरे हुए शिकार को जंगल के दूसरे कमज़ोर जानवर दावत समझकर चट कर जाते हैं। यहां भी ऐसा ही हुआ है। धुंध ने एक इंसान को मार दिया और लोगों ने मरते हुए इंसान की परवाह नहीं की बल्कि उसकी कार का सारा सामान और उसके मालिक को भी लूट लिया। अब मरने वाले के कपड़े देखकर फेसला सुना रहे हैं कि मरने वाला अपने कपड़ों से तस्कर लगता है इसलिए ऐसे लोगों का यही अंजाम होना चाहिए। इन लोगों ने पुलिस की कार्रवाई पर कोई सवाल नहीं खड़े किए और ना ही उन लूटने वालों लोगों की भूमिका पर कुछ कहा जो एक जख्मी को लूट कर जश्न मना रहे थेे बल्कि मरनेे वाले को मुजरिम साबित करके उसके खिलाफ फेसला सुनाने का हौसला दिखा रहे हैं। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इनको कौन भ्रमित कर रहा है। वह कौन फक़ीर है जो लोगों को कपड़ों से पहचानने का यह चमत्कारी मंत्र इनको सिखा रहा है।
*****
मेरी हास्य-व्यंग्य रचनाएं पसंद आ रही हों और आप चाहते हैं की आपके साहित्य प्रेमी मित्र भी इनको पढ़ें तो उनको share करें और comments box में अपनी प्रतिक्रिया 
अवश्य लिखें। धन्यवाद सहित 
शाहिद हसन शाहिद
70093-16992
Copyright reserved

Wednesday, December 30, 2020

नाम नहीं बताऊंगा

मुझे आज जिस व्यक्ति का इंटरव्यू करना था वह अपनी वेशभूषा से किसान लग रहा था और मेरे स्टूडियो में उसी लापरवाही से बैठा था जैसा कि कुछ समय पहले वह धरना स्थल पर अपनी ट्रेक्टर ट्राली में बैठे था। स्टूडियो मैं लगे कैमरों से वह डरा हुआ नहीं था बल्कि मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह कैमरों को डराते हुए कह रहा हो कि अब मैं तुमको बताऊंगा कि मैं कौन हूं।
मेरा अनुभव कहता है कि आजकल मध्यवर्ग में क्रोध का स्तर कुछ अधिक बढ़ा हुआ है। उसको सरकार से इतनी शिकायतें हैं कि ज़रा सी बात पर यह वर्ग उग्र हो जाता है।  यही मध्यवर्ग आजकल किसानों की शक्ल में संघर्ष करते हुए सड़कों पर है। जितना क्रोध इस समय इस वर्ग में है उतना गरीबी की रेखा से नीचे जीवन जीने वाले गरीबों या अमीरों में नजर नहीं आता।
मैंने उस व्यक्ति को ऊपर से नीचे तक कई बार देखा मुझे ऐसा लगा कि यह एक व्यक्ति ना होकर स्वयं मुकम्मल आंदोलन है, जो मेरे प्रश्न पूछते ही फट जाएगा और पल भर में सरकार विरोधी शिकायतों की फेहरिस्त खोल कर रख देगा। मैंने इंटरव्यू आरंभ करते हुए उससे पूछा- तुम्हारा नाम क्या है।
उसने मेरे शक को सही साबित करते हुए एक प्रकार से फटते हुए मुझसे ही प्रश्न कर दिया- क्या मेरी बेइज्जती करने के लिए बुलाया है?
मैंने अपने लेहजे में नरमी बरतते हुए कहा- नाम पूछना बेज्जती नहीं होती है। इंटरव्यू का नियम होता है कि इंटरव्यू देने वाले का नाम पूछा जाए। तुम अपना नाम बताओ ताकि हमारे दर्शकों को मालूम हो सके कि वह किसकी बात सुन रहे हैं।
उसने कहा- मैं अपना नाम सर्वजनिक नहीं करना चाहता इस कारण नाम नहीं बताऊंगा।
संवाद को आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा- ऐसा क्या है तुम्हारे नाम में जो तुम सर्वजनिक नहीं करना चाहते। तुम इस समय नेशनल चैनल पर हो, करोड़ों लोग तुम्हारा नाम जानना चाहते हैं। पर मैं करोड़ों लोगों को अपना नाम नहीं बताना चाहता, उसने साफ शब्दों में कहा।
मैंने पूछा- इसका कारण?
उसने कहा-मेरी पहचान किसान है जो नाम बताते ही समाप्त हो जाएगी।
नाम से किसानियत का क्या संबंध है, मैं समझा नहीं। उसने कहा-बहुत गहरा संबंध है,आप अपना इंटरव्यू शुरू कीजिए।
यह समस्या तो बड़ी गंभीर है मैंने एक बार फिर कौशिश की। उसने कहा-ऐसा ही समझ लीजिए। मैंने संवाद जारी रखते हुए अपने चर्चित पत्रिकाना अंदाज में कहा-मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि तुम्हारा नाम मुगल कालीन की याद दिलानेे वाला है ?
उसने प्रश्न का उत्तर ना देते हुए केवल इतना कहा कि जब मैं अपना नाम बताऊंगा तो परेशानी मेरे लिए कम तुम्हारे लिए ज्यादा खड़ी हो जाएगी।
मैंने चौंकते हुए उससे पूछा ऐसा क्यों?
उसने कहा-मान लो अगर मैंने अपना नाम तुम्हारी अटकलों के अनुसार मुगलकालीन युग से संबंधित बता दिया तो तुम असल मुद्दों से भटक कर मेरा नाम बदलने, मेरी घर वापसी या मेरे नाम के पीछे पाकिस्तान या चायना को तलाश करने लग जाओगे, जैसा कि भविष्य के अनुभव कहते हैं और वैसे भी तुम्हें मेरे नाम से क्या लेना देना है तुमने तो स्वयं मेरा नाम अन्नदाता रखा था फिर अचानक ही तुमने मुझे इतने नाम दे दिए कि मैं स्वयं कंफ्यूज हूं कि मैं स्वयं को टुकड़े टुकड़े गैंग कहूं, अर्बन नक्सल कहूं, दलाल, राजद्रोही, आतंकवादी, खालिस्तानी कहूं। इन सबके अतिरिक्त आलसी, निठल्ले, बहके हुए लोग कहते हुए पिछले एक माह से तुम्हारी जुबान नहीं थकी है। लोगों ने अपने भाषणों में या अपने ट्वीट द्वारा मुझे इन नामों से केवल एक बार ही बदनाम किया होगा जबकि तुम्हारे चैनल 24 घंटे मैं कई हजार बार इन नामों के सहारे कभी मेरे संघर्ष पर घड़ियाली आंसू बहाकर तो कभी मेरे मान सम्मान पर सिधा हमला करके मुझे रूसवा कर रहे हैं। अब तुम मुझे किसी भी नाम से पुकारो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर उसने एक गहरी सांस ली और थोड़ा रुक कर बोला मुझसे तुम किसी नए नाम की उम्मीद क्यों रखते हो। मैं नहीं चाहता कि इस संघर्ष के गर्भ से जन्म लेने वाली आवाज़ के चेहरे पर एक नए नाम का टेग अभी से लगा दिया जाए, ताकि तुम उसको पंजाब, हरियाणा, यूपी, महाराष्ट्र या हिंदू, मुसलमान,सिख, ईसाई और जातियों में बांट कर उसको कमजोर कर सको। यह कहते हुए वह भावुक हो गया और उसकी आंख से एक आंसू टपक कर जब जमीन की ओर बढ़ने लगा तो मैं चाहते हुए भी उसको अपने हाथों की हथेली पर सजा नहीं सका क्योंकि पत्रकारिता मेरी मजबूरी थी।
*****

मेरी हास्य-व्यंग्य रचनाएं आपको पसंद आ रही हैं और आप चाहते हैं की आपके साहित्य प्रेमी मित्र भी इनका आनंद उठाएं तो उनको share किजिए और blog spot comments box में अपनी प्रतिक्रिया अवश्य लिखें। 

धन्यवाद सहित 

शाहिद हसन शाहिद

70093-16992

Copyright reserved

Sunday, December 20, 2020

मैं भी किसान हूं

अचानक मेरे अंदर का किसान जाग उठा और बाग़ियाना अंदाज में कहने लगा कि मैं भी किसान हूं और आंदोलन में शरीक होने के लिए सिंधु बॉर्डर पर जाना चाहता हूं।
मैंने उसको हैरत से देखा और पूछा तुम कब से किसान हो गए?
उसने भी मुझे प्रश्नवाचक नजरों से देखा और कहा- मैं तुम्हारे अंदर एक साहित्यकार की भूमिका में काफी समय से छवियां गढ़ने का रचनात्मक कार्य कर रहा हूं। भिन्न भिन्न प्रकार की पृष्ठ भूमियों पर चरित्र पैदा करके तुम्हारी कहानियों को जीवन्त करता रहा हूं। इसके पश्चात भी क्या मुझे यह बताने की आवश्यकता है कि मैं भी किसान हूं, तुमको ज्ञात होना चाहिए कि जो व्यक्ति किसी भी प्रकार से कुछ भी पैदा कर रहा है वह किसान है। मैं छवियां पैदा करने वाला किसान हूं और अपने किसान भाइयों के संघर्ष को बल देने के लिए संघर्ष स्थल पर जाना चाहता हूं। 
उसकी दलील सुनने के बाद मैंने कहा- मैं समझ गया गमले में पुदीने की खेती करने वाले किसान की तरह तुम भी एक किसान हो,पर इसके लिए संघर्ष का ही रास्ता क्यों?  
मुझे इस समय किसान कई वर्गों में बटे नज़र आ रहे हैं, एक वर्ग संघर्ष कर रहा है, जबकि दूसरा सम्मेलन। तुम सम्मेलन वाले किसान क्यों नहीं हो जाते जहां खतरा कम है कुछ ना करने के पश्चात भी रंग चोखा है।
संघर्ष का दूसरा नाम ही किसान है, सम्मेलन तो तुम्हारे जैसे साहित्यकार, राजनीतिक या मुद्दों से फरार होने वाले लोग करते हैं। उसने मेरे बग़ैर  मांगे सुझाव का उत्तर देते हुए कहा।
अब मैं समझा कि कुछ लोग किसानों को अर्बन नक्सल क्यों कह रहे हैं। मैंने एक बार फिर उसको अपने कटाक्ष के निशाने पर लेते हुए कहा। उसने मेरी बात सुनी अनसुनी करते कहा- मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है, लेकिन मैं यह जानता हूं कि तुम्हारी वे सब कहानियां जो तुमने समाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते हुए लिखी हैं और जिस पर तुमको बड़ा गर्व है वे सब बकवास हैं। 
यह अचानक से मेरी कहानियां बकवास किस प्रकार हो गयीं उनको तो लोगों ने पसंद किया है उनकी प्रशंसा की है। मैंने उसकी आंखों में आंखें डाल कर पूछा तो उसने कहा, बर्फ जैसी ठंडी रात में खुले आसमान के नीचे संघर्ष करने वाले किसानों के साथ ना तो तुमने अभी तक ठंडी चाय पी है और ना ही उनके साथ लकड़ी जलाकर अलाव पर हाथ तापें हैं। मैंने उसकी बात को बीच में ही रोकते हुए कहा कि देसी गीजर से हुए गरम पानी से नहाते हुए भी तुम ने मुझे नहीं देखा होगा। उसने कहा- ठीक है....! इन कड़े अनुभवों से जब तक तुम नहीं गुज़रोगे किसानों की ही नहीं किसी भी समाजिक संघर्ष की कहानी नहीं लिख सकते यह मेरा विश्वास है। मैंने संवाद को आगे बढ़ाते हुए कहा- लंगर में काजू किशमिश,बादाम और पिज़्ज़ा खाने के बाद जिम और मसाज का मज़ा लेने वाले किसानों के संघर्ष की कहानी मैं नहीं लिख सकता इतना सुनकर ही मेरा पेट खराब हो जाता है।
काजू बादाम सुनकर पेट नहीं खराब होता है किसानों के कंधों पर रखी वह अदृश्य बंदूक देखकर तुम्हारा पेट खराब हो जाता है जिसका भय दिखाकर सरकार विपक्ष को निशाना बना रही है। उसने तुरंत उत्तर देते हुए कहा।
यह बात तुमने ठीक कही, बंदूक जैसी कोई चीज इस संघर्ष में डराने का काम तो कर रही है यह मैं भी महसूस कर रहा हूं। 
मेरी बात सुनकर वह एक क्षण के लिए खामोश हुआ और फिर बोला कुछ लोगों कह रहे हैं कि किसानों को संयोजक ढंग से भ्रमित किया जा रहा है तुमने सुना और भय के कारण आंखें बंद कर लीं और खामोश हो गए परंतु जब किसानों ने कहा कि हमको भ्रष्टाचारी,आतंकवादी,अर्बन नक्सली,टुकड़े टुकड़े गैंग,देशद्रोही, खालिस्तानी और बारबाला एंटोनियो के गुलाम कहकर बहुत सी बंदूकों से गोलियां दागी जा रही हैं तो तुम किसानों पर लगाए गए पचास लाख के जुर्माने के ज़िरो गिन्ने में व्यस्त रहे। यह कहां का इंसाफ है अंतरात्मा भी कोई चीज होती है। इतना कहकर उसने मुझे सोचने के लिए छोड़ दिया। 
अब मैं सच कहूं तो सच्चाई यह है कि मेरे अंदर मौजूद किसान ने मुझे अंतरात्मा की उस कसौटी पर खड़ा कर दिया है जहां मेरे लिए यह फेसला करना मुश्किल है कि आंखों पर काली पट्टी बांधकर इंसाफ करने वाली देवी की जगह अगर मैं स्वयं होता तो मुझे किसान की मर्यादा पर चली गोलियां नज़र आतीं या छुपा हुआ वह एजंडा, जो किसान को किशमिश बादाम की जगह भविष्य में सूखे चने खाने पर मजबूर कर देगा।
******
मेरी हास्य-व्यंग्य रचनाएं आपको पसंद आ रही हैं और आप चाहते हैं की आपके साहित्य प्रेमी मित्र भी इनका आनंद उठाएं तो उनको share किजिए और blog spot comments box में अपनी प्रतिक्रिया अवश्य लिखें। 
धन्यवाद सहित 
शाहिद हसन शाहिद
70093-16992
Copyright reserved