Wednesday, September 23, 2020

सोना लो, चांदी लो

सोना लो, चांदी लो, यह आवाज़ जैसे ही मोहल्ले की गलियों की दीवारों से टकराई। कई महिलाऐं टोकरीयां और थेले लेकर घरों से बाहर निकल आयीं। सोना-चांदी शब्द जो आपने पढ़े वे सत्य हैं। इसमें शब्दों की कोई जादूगिरी नहीं है। महिलाएं बहुत देर से इस सोने-चांदी बेचने वाले की प्रतीक्षा में थीं, वे उसकी आवाज़ सुनकर बगैर देर किए पूरी तैयारी के साथ घर से बाहर निकल आयीं। मैंने भी एक थैला उठाया और इस सोना-चांदी बेचने वाले वेंडर की प्रतीक्षा में महिलाओं के झुंड से दूर अपने घर के दरवाज़े पर खड़ा हो गया।
आप सोच रहे होंगे कि विश्व में ऐसा कौन सा देश है, जहां सोना-चांदी वहां के वेंडर गलियों में आवाज़ लगाकर बेचते हों, कहीं मैं किसी काल्पनिक देश की बात तो नहीं कर रहा हूं। जहां सोना चांदी गली मोहल्ले में फेरीवाले आवाज़ लगाकर बेचते होंगे। नहीं,ऐसा नहीं है, मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है की मैं विदेश या काल्पनिक देश की बात नहीं कर रहा हूं ,मैं अपने ही देश की बात कर रहा हूं जिसकी अर्थव्यवस्था शून्य 25 से नीचे जा कर आत्महत्या करने के लिए उत्सुक है। वह देश जिसके सामने कई करोड़ संगठित व असंगठित बेरोजगारों की सेना मुंह खोले खड़ी है, जहां समाज का हर वर्ग असुरक्षा और अविश्वास के कारण एक दूसरे को शक की निगाह से देखता है। जहां झूठ और पाखंड आपसे आपका धर्म पूछता है,जहां राष्ट्रवाद के नाम पर लोगों को गाली देना सिखाया जाता है। जहां अन्न पैदा करने वाला अपने बच्चों के पेट भरने के लिए सड़कों पर बैठकर लाठियां खाता है। वह देश जो करोना आपदा की होड़ मैं अपने दोस्त अमेरिका से आगे निकलने की होड़ में है। वहां गली में फेरी लगाने वाले वेंडर सोना और चांदी फेरी लगाकर बेच रहे हैं। यह और बात है कि सोने चांदी के नाम से बिकने वाली सब्जियां सोने चांदी की तरह ही महंगी हैं। जिनको मध्यवर्गी ग्रहणियां केवल छूकर ही रह जाती हैं, खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं।
सोना-चांदी बेचने वाले ने मुझसे पूछा- बाबूजी...! आप क्या लेंगे। 
मैंने कहा-लेहसन। उसने कहा- ₹300 किलो, मैंने कहा- हरा धनिया। उसने कहा ₹300 किलो। हरी मिर्च, वह भी ₹300 किलो।
मैंने विरोध जताते हुए कहा-इतनी महंगी। उसने हंसते हुए कहा- मैं सोना और चांदी बेच रहा हूं, आपने शायद मेरी आवाज़ सुनी नहीं।
मैंने उसकी हंसी का बुरा मानते हुए कहा- आप सोना चांदी क्यों बेच रहे हैं, सब्जियां बेचिए जो लोगों के काम आ सकें। 
उसने मेरी बात को हवा में उड़ाते हुए कहा-
जो मिल रहा है और जिस दाम में मिला है, ले लीजिए साहब, समय का पता कुछ नहीं कल हम हों या ना हों।
उसके इस प्रकार बात करने पर मुझे गुस्सा आ गया और मैंने चिढ़ते हुए कहा- क्यों ले लूं कोई ज़ोर जबरदस्ती है? उसने कहा- बाबू जी बुरा ना मानें तो मैं एक बात कहूं । मैंने कहा कहो। उसने कहा-इन्हीं तेवरों में यही बात अगर आपने सरकार से कही होती तो आज यह नौबत नहीं आई होती कि हमारी मां, बहनें सब्जी पकाने के लिए भी तरस गई हैं। वह सब्जी को केवल छूकर देखती हैं और फिर रेट सुनकर उसी जगह रख देती हैं, खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं। फिर उसने किसी दार्शनिक विद्वान की तरह कहा-श्रीमान जी, हमारी सहनशक्ति खतरनाक स्तर तक बढ़ गई है, हम नफरत और प्रोपेगेंडे के इस युग में बर्फ की तरह जम चुके हैं या मूल मुद्दों से भटक गए हैं, जबकि इस प्रकार से जम जाना या भटक जाना एक स्वस्थ समाज के लिए कोई अच्छा चिन्ह नहीं है, यह चिंता का विषय है। इतना कहकर वह थोड़ा सा रुका और फिर कहने लगा- यह तो आप भी भली-भांति जानते हैं कि पानी अगर बेहता रहे तब ही वह स्वच्छ व शीतल रहता है, एक जगह ठहर जाए तो सड़कर बदबू देने लगता है। इतना कहकर उसने एक गहरी सांस ली और फिर बोला-अगर बुरा ना मानें तो छोटा मुंह और बड़ी बात कहूं। मैंने बड़े रूखे पन से कहा- कहो। वह बोला प्रॉब्लम यह है कि आप अपना विरोध केवल सब्ज़ी वाले पर ही उतारना जानते हैं, इससे आगे कुछ नहीं। इतना कहकर वह हंसता हुआ आगे बढ़ गया और मैं बहुत देर तक अपने अंदर बर्फ जैसी ठंडक और ठहरे हुए पानी की गंध महसूस करता रहा फिर अचानक मैं दौड़ कर उसके पास गया और उससे पूछा- सब्जी बेचने से पहले तुम क्या करते थे? उसने कहा- दार्शनिक का प्रोफेसर था।
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शाहिद हसन शाहिद
70093-16991


Tuesday, September 15, 2020

हरामखोर

 जवान जादूगरनी ने जैसे ही अपने जादू के करतब दिखाना शुरू किए, लोगों ने यह कहते हुए चीखना और चिल्लाना शुरु कर दिया कि यह जादू पुराना है, कुछ नया दिखाओ। जादूगरनी ने कहा- मैं एक ऐसा जादू तुमको दिखाने जा रही हूं, जो तुम्हारे होश उड़ा देगा। दिमाग पिघला देगा। क्या तुम इसके लिए तैयार हो? लोगों ने कहा- हम तैयार हैं। लोगों का उत्साह देखकर जादूगरनी ने कहा- अपनी आंखें बंद करो और जब तक मैं ना कहूं इनको मत खोलना। उसकी बात मानते हुए लोगों ने अपनी आंखें बंद कर लीं और वे एक प्रकार से अंधभक्त बन गए। जादूगरनी ने मुंह ही मुंह में कुछ शब्द बुद बुदाना आरंभ किए। कुछ देर बाद उसने अंधभक्तों से कहा-अपनी बंद आंखें खोलो। भक्तों ने कहा-वे नहीं खुल रही हैं। जादूगरनी ने कहा-ओह, मैं भूल गई, तब उसने थाली बजाना आरंभ की और साथ खड़े लोगों ने ताली।थाली और ताली की जुगलबंदी जब भगतों के कानों तक पहुंची तो उन्होंने अपनी आंखें खोल दीं। अब उनकी खुली आंखों ने जो देखा उसको देख कर सब हैरान रह गए। जादूगरनी ने जो दावा किया था वह उस ने सच कर दिखाया था। उनको विश्वास नहीं हो रहा था कि यह कैसे संभव हो सकता है कि समंदर के किनारे रहने वाले भक्तों को जादूगरनी ने चुटकी बजाते ही अपने जादू से बर्फ से ढकी पहाड़ियों पर पहुंचा दिया था, जहां से उनको छुपे आतंकी भी साफ नज़र आ रहे थे। लोगों ने जादूगरनी से पूछा- यह कौन सी जगह है और हम कहां हैं ? जादूगरनी ने कहा- तुम पीओके में हो।
लोगों ने कहा- हम पीओको में क्या कर रहे हैं? जादूगरनी ने कहा शासक बाबर के राज के मज़े ले रहे हो। किसी नए प्रश्न के आने से पहले जादूगरनी ने चेतावनी देते हुए लोगों से कहा- अगर इस से अधिक की तुमने मुझे से इच्छा रखी तो में बाबर के फौजियों को बुलाकर तुम्हारी वह पिटाई करवाऊंगी कि तुम्हें अपनी नानी, और फिर नानी की नानी याद आ जायेगी। शब्द पिटाई सुन कर कुछ लोग डर गए,उनकी निगाहों के सामने माबलंचिग जैसे केई मामले घूम गए, परंतु भीड़ में से एक व्यक्ति खड़ा हुआ और उसने चीखते हुए कहा- ऐ...! जादूगरनी, तूने यह अच्छा नहीं किया। हमने अपना पूरा जीवन समंदर को समर्पित किया है। और उसने भी हमें वह सब कुछ दिया है, जिसकी हम इच्छा कर सकते हैं। हमको अपना समंदर और प्रदेश प्यारा है, हम इन पहाड़ियों का क्या करेंगे, हमको वापस वहीं पहुंचाओ, जहां के हम वासी हैं। जादूगरनी ने कहा- ऐसा संभव नहीं है। अधिकृत पहाड़ियां भी हमारी हैं जिन को हम किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ सकते। व्यक्ति ने क्रोधित होते हूए कहा- 
तू हरामखोर है। जादूगरनी ने पूछा, यह हरामखोर क्या होता है व्यक्ति ने कहा- जिस थाली में खाती है उसी में छेद करती है यही हरामखोरी है। इतना सुनकर जादूगरनी शोर मचाने लगी और अंधभक्तों को उकसाते हुए कहने लगी देखो-देखो यह देश द्रोही मुझे गाली दे रहा है। देश की बेटी का अपमान कर रहा है। नारी सम्मान की बातें करने वाला नारी को खुलेआम बेइज्जत कर रहा है। इतना सुनकर कुछ भोंपू टायप के लोग जोर-जोर से चीखने लगे...... शर्म करो शर्म करो।
भीड़ में से एक दूसरा आदमी निकल कर सामने आया और उसने जादूगरनी से कहा- हमें बताओ जादू करते समय तुमने ऐसे कौन से शब्द कहे थे। जो हम इस स्थिति तक पहुंच गए। जादूगरनी ने कहा- वे जादुई शब्द थे राम मंदिर, मुसलमान, आतंकवाद,गद्दार, राष्ट्रद्रोह, और निपोटिज़्म। व्यक्ती ने चीखते हुए कहा- यह शब्द जादू नहीं कर सकते, यह शब्द तो किसी राजनीतिक पार्टी का एजेंडा लगते हैं। तुम इन शब्दों से जादू नहीं कर सकतीं। जादूगरनी बिगड़ गई और कहने लगी मुझे इन्हीं शब्दों से जादू करना सिखाया गया है।इन शब्दों ने वह कर दिखाया है जिसकी तुम कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इतना सुनकर कई लोगों ने एक साथ कहा तू झूटी है। 
जादूगरनी ने कहा- मैं झूठी नहीं पागल हूं, यकीन ना आए तो मूवी माफिया से पूछ लो। जिसने मुझे 2008 में पागल 2016 में डायन 2020 में स्टॉकर, एवं खिसकी हुई घोषित कर रखा है।
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शाहिद हसन शाहिद
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Saturday, September 12, 2020

कीचड़ ना उछालिए

खबर यह है कि प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना जो छोटे और मझोले किसानों को ₹6000 सालाना की वित्तीय मदद देने के लिए दिसंबर 2018 में शुरू हुई थी। वह आज कल चर्चा में है। तमिल नाडु कृषि विभाग की जांच में सामने आया है की लाभार्थियों में 5.5 लाख से ज्यादा नकली नाम इस में शामिल हैं। जिससे राजकोष को लगभग ₹110 करोड़ का चूना लगा है।
लोगों का कहना है की कृषि विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों ने एक सिंडिकेट बनाया और  नकली दस्तावेजों द्वारा अयोग्य लोगों को योजना के साथ जोड़ दिया। यह सारी कवायद ऑनलाइन होना थी जिसमें झूठे दस्तावेज और पासवर्ड इस्तेमाल किए गए। योजना की शर्तों के अनुसार किसानों के पास 2 हेक्टेयर तक जमीन होना चाहिए व परिवार से एक ही व्यक्ति इस योजना का लाभ ले सकता है। नौकरशाही ने ऐसा ना करके योजना का दायर बढ़ा कर एक घर से 6 लोगों तक पहुंचा दिया और ग्रेटर चेन्नई के आलीशान बंगलो में रहने वालों को भी स्कीम का लाभ पहुंचाया जिनके पास कृषि भूमि थी ही नहीं। कुछ ऐसा ही हाल दूसरे प्रदेशों को का भी है जहां बड़े पैमाने पर आयोग्य लोगों को उपरोक्त योजना में शामिल किया गया है। 
कुछ विद्वानों का कहना है कि यह खुली धोखाधड़ी है। कुछ का विचार है कि यह राष्ट्र विरोधी कार्य है। जबकि प्रधानमंत्री  कहते हैं कि हमारे देश में गरीबों की बात तो बहुत हुई है, लेकिन गरीबों के लिए जितना कार्य पिछले 6 साल में हुआ है, उतना कभी नहीं हुआ। हर वह क्षेत्र, हर वह सेक्टर जहां गरीब, पीड़ित, शोषित, वंचित, अभाव में था, सरकार की योजनाएं उस का संबल बनकर आयीं।
मैं सोचता हूं कि ऐतराज करने वाले लोग यह क्यों नहीं समझते कि अब गरीब की परिभाषा बदल गई है जिसको हम पहले गरीब मानते थे वह तो धीरे धीरे लुप्त होते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ठीक कह रहे हैं। देश की अर्थव्यवस्था जिस हाल में या जिन कारणों से अस्वस्थ है, उसमें सबसे ज्यादा बुरी हालत मध्य वर्गी समाज की है, जो देखते ही देखते गरीब हो गया। वह रहता तो कोठियों में हैं, जो उसने कभी अपने बुरे वक़्त में पहले बना ली थीं, परंतु अब उसके पास अपनी कमीज़ का सफेद कॉलर बचाने के लिए ₹6000  धोखे से लेने के अतिरिक्त आत्महत्या का ही विकल्प रह जाता है। अंततः मैं इतना ही कहूंगा की हर चर्चा को जुमले बाज़ी कहकर गरीबों के लिए सरकार की सद्भावनाओं का मज़क ना उड़ाएं और ना ही कीचड़ उछालें सच्चाई भी तलाश कर लिया कीजिए।
शाहिद हसन शाहिद
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बंदूक की खाली नाल

मेरे आश्चर्य की सीमा उस समय समाप्त हो गई जब मैंने देखा कुछ चिड़ियां सूर्य को निगलने की कोशिश में है।
वह सूर्य- जिसकी गरिमा एवं ऊर्जा में हम शांतिमय, सौहार्द्रपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। जो अपनी आंखों पर काली पट्टी बांधकर हमें धर्मनिरपेक्षता के साथ न्याय देता है। उसी सूरज को आज कुछ बिगड़ेल चिड़ियों की ओर से आपने पंखों की काली छतरियां दिखाकर ललकारा जा रहा है। उसके प्रताप को समाप्त करने की योजना की जा रही है। यह एक खतरनाक पहल थी, जिसे देखकर मुझे धक्का लगा और मैं एक आम नागरिक की तरह व्याकुल हो उठा। व्याकुलता कि इस घड़ी में मुझे अपनी वह शपथ याद आ गई, जो मैंने कभी एक सभ्यनागरिक की भांति राष्ट्रवाद, शिष्टाचार, आपसी भाईचारे, अहिंसा और सर्वधर्म सम्मान व शांतिमय जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा के साथ ली थी।
शपथ का विचार आते ही मैंने सोचा- अगर आज सूर्य पर काले बादल छा गए और वह चिड़ियों के षड्यंत्र का शिकार हो गया, तो मेरी राष्ट्र भावना का क्या होगा। देश के प्रति मेरी निष्ठा व परिस्थितियां कहती हैं कि मैं इस समय खामोश ना रहकर आगे बढ़कर इस संभावित खतरे का मुकाबला करूं। खाली हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से शपथ की मर्यादा पूरी नहीं होगी। समय मुट्ठी में बंद रेत की तरह होता है अगर यह फिसल गया तो मेरे पास केवल अफसोस करने के कुछ नहीं बचेगा। व्यक्तिगत तौर पर मुझे कुछ न कुछ निर्णय निश्चय ही लेना होगा।
 यह सूर्य ही नहीं रहा तो हम न्याय के लिए किसके द्वार पर जाकर खटखटा एंगे। मुझे अवश्य ही इन निर्भय एवं ज़िद्दी चिड़ियों के विरुद्ध क़दम उठाना चाहिए।
यह सोचकर मैंने तुरंत उत्साहित होते हुए एक स्वाभिमानी व साहसी निर्णय लिया। मैंने साहस के साथ अपनी दोनाली बंदूक निकाली। बंदूक पर चढ़ी धूल व मिट्टी साफ की। उसका बहुत ही बारीकी के साथ निरीक्षण किया। निशाना चेक किया और फिर बंदूक के कारतूस निकाल कर बाहर रखे। एक गहरी सांस ली और स्वयं को शांत करते हुए अपनी इस पूरी कारवाई से संतुष्ट होकर बंदूक की खाली नाल पर अमन का प्रतीक सफेद कपड़ा बांधा और उसको रख आया निर्भीक, बिगड़ेल, ज़िद्दी चिड़ियों की ओर मुंह करके,खुले आकाश के नीचे। जो उस समय भी सूर्य को निकलने की चेष्टा में निरंतर प्रयास कर रहीं थीं।
नोट:- यह कहानी मैंने दूसरी बार पोस्ट की है। पहली कहानी किसी कारणवश डिलीट हो गई थी।

Thursday, September 10, 2020

बूढ़े हो गए हो तुम

मैंने अपने बेटे से कहा-आज़ादी का अर्थ यह नहीं है जैसा कि तुम समझ रहे हो।दिशाहीनता और पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित तुम्हारी जीवन शैली ने आज़दी शब्द को अर्थहीन बना दिया है। इसका का आदर करो, यह बहुत क़ीमती है, मेरे बेटे।
उसने आत्म-निर्भरता के साथ नपे-तुले शब्दों में एक ही वाक्य में उत्तर देते हुए मुझ से कहा- आप बूढ़े हो गए हैं पिताजी।
मैंने अपनी बेटी से कहा- समाज ने लड़कियों के लिए कुछ सीमाएं निर्धारित की हुई हैं। तुम उन सीमाओं का उल्लंघन करती दिखाई दे रही हो। लज्जा हमेशा से स्त्री का बहुमूल्य आभूषण रहा है, तुमने यह आभूषण क्यों उतार फेंका मेरी प्यारी बेटी? उसने तुरंत भाहीन स्वर मैं मुझे उत्तर देते हुए कहा- आप बूढ़े हो गए हैं पापा।
मैंने अपनी पत्नी से कहा- नारी स्वतंत्रता, महिला सशक्तिकरण,आत्मसम्मान एवं पुरुष से समानता जैसे शब्दों के मायाजाल मैं फंसकर यह जो कुछ आप नि:संकोच एवं निर्भय होकर कर रही हैं,यह सरासर गलत है और आने वाली पीढ़ियों के लिए तबाही भी। हमारी सभ्यता, परंपरा और रीति-रिवाज किसी भी स्थिति में  इसकी अनुमति नहीं देते हैं। भविष्य की पीढ़ियों के चरित्र निर्माण की जिम्मेदारी आपके कंधों पर है। इस जिम्मेदारी को कुशलतापूर्वक पूरा कीजिए और तुरंत रोकिए इन खुराफात को, जो समाज में आ रहे बदलाव के नाम पर आप अपनाती जा रही हैं,नहीं तो देर हो जायेगी। अगर देर हो गई तो विरासत के नाम पर नई पीढ़ी को देने के लिए आपके पास कुछ नहीं बचेगा। इतना सुनकर उन्होंने बड़ी निंदनीय निगाहों से मुझे देखा और ललकारते हुए कहा- बूढ़े हो गए हैं आप।
परिवार की प्रतिक्रियाएं सुनने के बाद, मैंने समाज को संबोधित करते हुए कहा- ऐसी क्या मजबूरी थी जो रिश्तों की गरिमा,मान-मर्यादा, आपसी भाईचारा,सम्मान, प्रेम, व्यवहार,चरित्र की गरिमा, शालीनता सब कुछ छोड़ दी तुमने। तुम ही तो हमेशा से हमारी पहचान रहे हो। तुम ही बदल गए तो हम किस दर्पण में अपना प्रतिबिंब देखकर स्वयं को पहचानेंगे।
भावी पीढ़ियां किस चीज पर गर्व करेंगे।
क्या तुमने कभी सोचा है ? तो उसने बड़े  अहंकारपूर्ण एवं उपेक्षिता के साथ मुझ से हुए कहा- बूढ़े हो गए हो तुम।
इसके बाद मैंने राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा- राष्ट्र स्वाभिमान, सम्मान,गौरव, रीति- रिवाज, सभ्यता आदि सब राष्ट्र इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों से लिखे यह वह शब्द होते हैं, जो सदियों में निर्माण होते हैं। त्यौहार प्र:या हमारी सभ्यता एवं परंपरा की पहचान रहे हैैं, तुमने इन सब मूल्यवान आदर्शों को छोड़कर यह किस नई सभ्यता के साथ हाथ मिला लिया है जो हमारी विचारधारा व चरित्र से मेल नहीं खाती है। हर रोज नए-नए त्यौहार,नई-नई मान्यताएं, जो तुम मनाने लगे हो वे हमारे समाज का कभी अंग नहीं रही हैं, यह विशेष दिवस मनाने का चलन तुमने कहां से सीख लिया। जो हमारी सभ्यता का हिस्सा कभी थे ही नहीं। इसकी जवाबदेही तो तुमको करनी ही होगी नहीं तो समय तुम्हें माफ नहीं करेगा।
उसने बड़ी घृणित नज़रों से मुझे देखते हुए कहा- बूढ़े हो गए हो तुम।
इस पूरे संवाद का निष्कर्ष यह निकला कि हर वर्ग ने एकमत होकर यह घोषणा करने में देर नहीं की कि मेरी सोच बूढ़ी एवं रूढ़िवादी हो चुकी है और मैं बुढ़ा। जबकि मैं यह मानने के लिए कदापि तैयाार नहीं कि मैं बूढ़ा हो गया हूं। मेरी चेतना मेरी सोच और मेरा विवेक मुझसे पूछता है। क्या क़ुराने पाक की शिक्षाएं,गीता के संदेश, बाइबल के उपदेश या गुरु ग्रंथ साहब की वाणी कभी बूढ़ी हो सकती है ? क्या पीर-फकीरों, ऋषि- मुनियों के पाक क़दमों से गुंथी मेरे देश की मिट्टी बूढ़ी हो सकती है ? क्या मेरे देश की बहुरंगी विरासत कभी बूढ़ी हो सकती है? अगर यह सब बूढ़े नहीं हो सकते हैं, तो मैं कैसे विश्वास कर लूं कि मैं बूढ़ा हो गया हूं।

- शाहिद हसन शाहिद
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Monday, September 7, 2020

दीवार पर लिखी गालियां

लेखक- शाहिद हसन शाहिद----

मैं उस समय अचंभित रह गया जब मैंने अपने घर की कच्ची दीवार पर पवित्र रंगों से लिखी दखीं अश्लील व नस्ली गालियां।
मैंने अपने बच्चों को बुलाया और उनसे पूछा-क्या तुम इन गालियों का अर्थ जानते हो ?
वह बोले-हां------हम अर्थ जानते हैं।
मैंने पूछा- क्या जानते हो ?
उन्होंने कहा- यही की हमारी औकात इन गालियों से अधिक नहीं है।
बच्चों का उत्तर सुनकर मैंने अपने पड़ोसी से पूछा- क्या तुम इन गालियों का अर्थ समझते हो, पहले तो वह कुछ नहीं बोला, फिर कुछ सोच कर कहने लगा- हां-------मैं इतना आवश्य समझता हूं की अगर हम उस पेंटर को तलाश कर लें जिसने यह गालियां लिखी हैं तो हमें इन गालियों का अर्थ अवश्य पता चल जाएगा।
मैंने फिर दूसरे पड़ोसी से पूछा- तुम्हारा क्या विचार है इन गालियों के बारे में ?
वह बोला-इन गालियों के बारे में मेरा कोई विशेष विचार तो नहीं है,पर मैं इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि गालियां लिखने के लिए जिस पवित्र रंग का प्रयोग किया गया है, वह उचित नहीं है। इस पवित्र रंग के अतिरिक्त कोई दूसरा रंग होना चाहिए था तो उचित रहता।
मैंने तीसरे पड़ोसी से पूछा- तुम्हारी क्या राय है इन गालियों के संदर्भ में ?
वह बोला- शब्दों की कठोरता में भविष्य को तांडव करते देख रहा हूं। भगवान कृपा करे हम सब पर।
फिर मैंने चौथे पड़ोसी से कहा- महोदय, आप भी कुछ प्रतिक्रिया या विचार प्रकट कीजिए मेरे घर की दीवार पर लिखी इन अश्लील गालियों पर।
वह बोल-क्या बोलूं ? मैं तो केवल इतना जानता हूं कि गालियां हमारे समाज व हमारे चरित्र का दर्पण होती हैं, जब हम गालियों द्वारा अपनी भावनाएं प्रकट करते हैं तो सुनने वाले को वह अवश्य गालियां लगती हैं जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है वह गालियां देने वाले के भीतर का भय या डर होता है जो गालियों के रूप में दूसरे पक्ष को डराने का कार्य करता है। इस समय वही डर तुमको डरा रहा है।
इस प्रकार मैंने समाज के हर व्यक्ति को अपने घर की कच्ची दीवार पर पवित्र रंगों से लिखी गालियों पर उनकी प्रतिक्रियाएं जानने की कोशिश की और सब ने ही अपने मतानुसार इन गालियों पर अपनी अपनी टिप्पणी दीं, पर अफसोस किसी एक ने भी हाथ में कपड़ा पकड़कर इन गालियों को दीवार से साफ करने की पहल नहीं की।
समाज की बहानेबाजी,नपुंसकत और संवेदनहीनता से दुखी होकर मेरे अंदर का अमानुष गुस्से से पागल हो उठा और उसने अपने इसी पागलपन से ग्रस्त होकर अपने मासूम बच्चों की बाहें मजबूती के साथ पकड़ीं और बंद कराया उनको उसी मकान में जिसकी कच्ची दीवार पर पवित्र रंगों से लिखी गयीं थीं अश्लील व नसली गालियां।
 साथ ही साथ बच्चों को यह चेतावनी भी दे आया की खबरदार- जो तुमने अपना मुंह और घर का दरवाजा खोला। तुम्हें अपना मुंह और घर का दरवाजा उस समय तक बंद रखना है जब तक तुम जवान होकर गालियां लिखने वालों को इन गालियों का अर्थ व परिणाम समझाने के योग्य ना हो जाओ।
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शाहिद हसन शाहिद

Saturday, September 5, 2020

पागल इंसान


एक महिला का निर्वस्त्र शव सुबह से सड़क  किनारे पड़ा लोगों की उपेक्षा का शिकार हो रहा था। आते जाते लोग उसको तिरछी निगाहों से देखते और सुबह-सुबह मूड खराब ना हो जाए इस डर से आगे बढ़ जाते। कुछ लोग रुके भी परंतु काम की जल्दी में मुंह घुमा कर वह भी आगे बढ़ गए। 
आबादी से भरे इस मोहल्ले में इस अपमानित होते शव की परवाह करने वाला दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था, जो महिला पर चादर डाल कर उसकी गरिमा का सम्मान करे।
समाज की अपंगता व उपेक्षा का शिकार यह शव लोगों को शायद इस कारण भी आकर्षित नहीं कर पा रहा था, क्योंकि उसका शरीर जवान ना होकर बूढ़ा था।
सड़क से गुजरते एक पागल की नजर उस शव पर पड़ी। पागल ने भयभीत नजरों से शव को देखा, फिर समाज के उन मुर्दा दिल लोगों की और देखा जो प्रतिक्रियाएं देने मैं व्यस्त थे। पागल ने एक शब्द उन से नहीं कहा। 
उसने विलंब किए बगैर अपनी फटी धोती उतारी और उस अपमानित होते नग्न मृत शरीर पर डाल कर चुपचाप आगे बढ़ गया।
पागल की धोती उतरते ही एक नई समस्या उत्पन्न हो गई। अब एक वयस्क व्यक्ति सभ्य समाज में नग्न अवस्था में बड़ी बेशर्मी के साथ घूमने के लिए तैयार था। जिसे देखकर स्वाभिमानी लोगों की सोई स्वाभिमानी ता जाग उठी और उनको लगा जैसे पागल ने अपनी धोती ना उतारकर पूरे समाज की धोती उतार दी हो। इस पीड़ा को महसूस करते हुए वह जोर-जोर से चीखने और चिल्लाने लगे-
अरे यह क्या हो रहा है? एक पागल जवान व्यक्ति हमारे मोहल्ले में इस प्रकार नंगा घूम रहा है, बेशर्मी की भी कोई सीमा होती है। पकड़ो इसको, रोको इस पागल को,यह पागल इस अवस्था में हमारे मोहल्लों में ना जाने पाए जहां हमारी बहू बेटियां रहती हैं।
समाज की ललकार के बाद लोगों की सोई अंतर्रात्मा जाग उठी उनको लगा कि पागल को अगर तुरंत ना रोका गया तो अनर्थ हो जाएगा इस कारण उन सब ने अपना आवश्यक काम -धंधा छोड़ा और उस पागल को पकड़ने के लिए दौड़ पड़े।
 थोड़ी सी मेहनत के बाद सभ्य समाज के मूल्यों से बेपरवाह वह पागल लोगों की पकड़ में आ गया। पागल के पकड़ में आते ही पहले तो इन लोगों ने उसकी इस अपराध के लिए जमकर पिटाई की कि वह शरीफ लोगों के मोहल्ले में बेशर्मी के साथ निर्वस्त्र घूम रहा था। फिर एक फटा कपड़ा देकर उसकी नंगता पर पर्दा डाल दिया।
 इस पूरे प्रकरण के बाद भी उस बुजुर्ग महिला का निर्वस्त्र शव वहीं पड़ा स्वाभिमानी  समाज के जागने की प्रतीक्षा करता रहा।
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धन्यवाद सहित
शाहिद हसन शाहिद

सब खुश हैं


मैं खुश हूं बल्कि बहुत ज्यादा खुश हूं ।

चार दिन अस्पताल में गुजार कर 'जान बची और लाखों पाए' कहावत अनुसार स्वस्थ लाभ लेकर वापस जीवित घर जो आ गया हूं।

मेरे स्वस्थ होने पर मेरा डॉक्टर भी खुश है। उसके कहने के अनुसार उसने 25000 रुपए की मामूली राशि लेकर मुझे नया जीवन जो प्रदान किया है, वह जीवन जो थोड़ी देर से क्लीनिक पहुंचने पर मेरा नहीं रहता और कुछ भी बुरा हो सकता था, जो समय पर क्लीनिक पहुंचने पर टल गया।

मेरे दोस्त वा रिश्तेदार भी मेरे स्वस्थ होने पर खुश हैं, उनकी खुशी का कारण है कि उन्होंने सोशल डिस्टेंसिंग का बहाना लेकर टेलीफोन द्वारा मेरा हाल पूछ कर मेरे प्रति अपनी सद्भावनाएं समय पर पहुंचा दी थीं। जिस कारण वे अपनी आत्मीयता दिखाने में सफल रहे, नहीं तो सोचिए अगर मेरे साथ भगवान ना करे कुछ बुरा हो जाता और उनको अपनी व्यस्त जीवन में से कुछ समय निकालकर मेरे उस बुरे में शामिल होना पड़ जाता तो उनके लिए कितनी मुश्किल हो जाती।

मेरी बैगम भी खुश हैं, क्योंकि उन्होंने एक बार फिर मेरे प्रति अपना समर्पण व त्याग से सिद्ध कर दिया है की वह हमेशा की तरह इस बार भी वफादारी और प्रेम की कसोटी पर खरा सोना साबित हुई हैं, जबकि इसकी कीमत उनको अपने गले की वह सोने की चैन बेचकर अदा करना पड़ी है, जो मैंने उनको निकाह के समय मुंह दिखाई पर दिखी थी।

मेरे जीवित होने पर मेरे बच्चे भी बहुत खुश हैं। वह अपनी खुशी में खुदा का शुक्र अदा करना नहीं भूल रहे हैं, जिसने उनकी इज्जत बचा ली वह सोचते हैं कि अगर पापा के साथ कुछ बुरा हो जाता तो अस्पताल के बिल के साथ-साथ कफन, दफन और दूसरी धार्मिक क्रियाओं के अतिरेक इस अवसर पर आने वाले अतिथियों और उनके नाज़ नखरों पर आने वाला लगभग एक लाख का खर्च वह कैसे पूरा कर पाते क्योंकि उनकी मां के पास बेचने के लिए केवल सोने की चैन के अतिरिक्त कुछ और था ही नहीं।

- शाहिद हसन शाहिद

पाजी का खेल खत्म

पाजी का खेल खत्म
आजकल मैं एक ऐसी मनोवैज्ञानिक बीमारी से ग्रस्त हूं जिसमें कहने वाला कहता कुछ और है और मैं समझता कुछ और हूं। इसका अर्थ यह नहीं  है कि मैं बेरा हो गया हूं या मुझे सुनाई कम दे रहा है। बल्कि कोविड-19 के कारण गत 4 माह से घर में बगैर किसी अपराध के क़ेदियों जैसी जिंदगी गुजारने के कारण मेरे दिमाग ने अपनी मनमानी करना आरंभ कर दी है। मनमानी के कारण ही  आज  के समाचारपत्र की पहली हेडिंग को मैंने कुछ इस प्रकार पढ़ा-"पाजी का खेल खत्म"। इतना पढ़कर मैं कुछ क्षण के लिए स्तंभ रह गया कि यह कैसे हो सकता है ? पाजी तो ठीक-ठाक थे, कल तक तो वह शांत मन से मोर को दाना खिला रहे थे फिर यह कैसे हो गया ? समाचार के हेडिंग में मुझे कुछ संदेह लगा। मैंने उत्सुकता के साथ विस्तार से समाचार पढ़ना आरंभ किया तो ज्ञात हुआ कि पाजी नहीं बल्कि पबजी लिखा है। जिस को मेरे बीमार दिमाग ने पाजी पढ़ लिया और मैं वह सोचने लगा जिसको सोचने का 138 करोड़ भारतीयों को कोई हक नहीं है। 
यह तो वह  समाचार था जिसको सुनकर चीन भुखला उठा। उसके होश उड़ गए, अर्थव्यवस्था धरा शाही हो गई और वह पाजी के सामने गिड़गिड़ाने लगा। समाचार की  यह वह प्रतिक्रियाएं थीं जो हमको बाद में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बतायीं।
पबजी के बंद होने के ग़म में कुछ लोग यह कहते भी सुने गए की पबजी को पूरे विश्व के 17.5 करोड़ युवाओं ने डाउनलोड कर रखा है। इसमें सर्वाधिक 5 करोड़ से अधिक भारतीय हैं। जिनमें से लगभग 3.5 करोड़ सक्रिय खिलाड़ी थे जो अब पबजी बन्द होने के बाद पुणीता बेरोजगार हो गए हैं।
युवाओं और बच्चों में लोकप्रिय गेमिंग एप प्लेयर अननोन बैटलग्राउंड यानी पबजी पर सरकार ने पाबंदी लगाने के पश्चात कुछ विद्वानों का यह भी कहना है की सरहदों पर चीन को मुंहतोड़ जवाब हमारे जवान दे रहे हैं और देश की अंदर की सफाई हमारे पाजी कर रहे हैं।
 यह पाजी शब्द भी बड़ा अनोखा है अगर पंजाबी भाषा में प्रयोग हो तो इसका अर्थ भाई होता है जबकि हिंदी भाषी इसका उपयोग चालाक एवं शैतान के तौर पर करते हैं। मैं पंजाबी अर्थ को उचित समझते हुए कहूंगा की पाजी ने 118 एप्स बंद करके जीडीपी वाले मुद्दे को अपने जादुई करिश्मे से गायब कर दिया, यही पाजी का मास्टर स्ट्रोक है। यह नए भारत का उदय है, जो विश्व गुरु है। अंततः मैं नए- नए हुए बेरोजगारों के प्रीति अपनी संवेदना प्रकट करते हुए कहूंगा कि वह खेलकूद से बाहर निकलें और मनोरंजक मींम्स देखने के लिए स्वयं को तैयार करें। जो भारतीय होंगे और हमको आत्मनिर्भर बनाने में सहयोगी भी।
-शाहिद हसन शाहिद
   

भौंकने वाले कुत्ते


मुझे याद है वह दिन जब शाम ढलते ही अचानक सैकड़ों कुत्तों ने शहर को चारों तरफ से घेरकर जोर-जोर से भौंकना शुरू कर दिया था।
 जिस कारण महिलाएं डर गई थी और बच्चों ने रो-रो कर आसमान सर पर उठा लिया था। कुत्तों के इस प्रकार जोर-जोर से भोकने के कारण पूरे नगर का शांतिमय वातावरण अचानक आतंक के साए में आ गया था। इस घटना के बारे में किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है और कुत्ते क्यों भूख रहे है?
स्थानीय नौजवान भी इस अचानक होने वाले शौर की आवाज सुनकर अपने-अपने घरों से बाहर निकल आए थे, वह अचरज में थे परंतु शांत रहकर अचानक पैदा हुई परिस्थितियों को समझने की कोशिश कर रहे थे तभी मैंने एक बुजुर्ग की तरह जवानों को ललकारते हुए कहा था-
खड़े-खड़े क्या देख रहे हो ? किसकी प्रतीक्षा में हो, कुछ करते क्यों नहीं? तुम्हारी मर्यादा क्या खाक चाट रही है कुत्ते तुम्हें ललकार रहे हैं और तुम खामोश तमाशा ही बने खड़े हो। क्या यह पागल कुत्ते जब तुम पर हमला कर देंगे तभी तुम जागोगे, उठाओ अपनी-अपनी लाठियां और हमला करो इन भोकने वाले कुत्तों पर और भगाओ इनको शहर से दूर बहुत दूर जहां इनका स्थान है। मेरी ललकार सुनकर वीर जवानों ने एक दूसरे की और देखा था और आंखों ही आंखों में फैसला किया था कि यही वह उचित उपाय है जिससे स्वाभिमान और जिवन दोनों बचाए जा सकते हैैं। बस फिर क्या था पल भर में सैकड़ों लाठियां निकल आई थीं और बड़े संयोजित ढंग से इन भोकने वाले कुत्तों की ओर बढ़ गई थीं, कुछ समय बाद हम सब ने देखा था कि शौर थम गया है और कुत्ते खामोश हो गए हैं।
 कुछ समय बाद पता चला कि शोर थमने का कारण वह मजबूत लाठियां नहीं थीं, बल्कि वह रोटियां थीं जो हमारे स्वाभिमानी वीर जवान अपनी मजबूत लाठियों के साए में भयभीत लोगों की नजरों से छुपा कर इन भोकने वाले कुत्तों के लिए चौराहे पर रख आए थे।
- शाहिद हसन शाहिद
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