Monday, March 15, 2021

पाठशाला

"आपने मुझे पाल-पोस कर कोई एहसान नहीं किया है, अपनी अय्याशी की क़ीमत चुकाई है।"
बेटे के मुंह से यह अनजान अल्फाज़ सुनते ही मैं हेरान रह गया क्योंकि यह भाषा ना तो मेरे परिवार की है और ना ही मेरे संस्कार ऐसे हैं। शब्द "अय्याशी" सुनकर मैं एक ऐसे शुन्य में परिवर्तित होता चला गया जिसके आगे और पीछे कोई संख्या ना हो। सिर्फ सवालों का ख़त्म ना होने वाला सिलसिला हो जो मुझे आंखें बंद करके सोचने पर मजबूर कर रहा हो कि मैं अपने अतीत के काले सायों को तलब करुं और उनसे पुछूं- ऐ काले सायों तुम गवाही दो कि अतीत में कभी ऐसा हुआ है कि मैंने गुस्से से पागल होकर अपने पूज्य पिता या परिवार के किसी सदस्य को  अपशब्द कहने का साहस किया हो ?        तो काले साए अपने हाथ खड़े करते हुए कहें- नहीं, कभी नहीं۔۔۔۔! हमने इस प्रकार पिता या परिवार वालों की तौहीन करते आपको कभी नहीं देखा। 
काले सायों की गवाही के बाद भी प्रश्न फिर भी वहीं खड़ा था कि मेरे बच्चे के मुंह में अय्याशी जैसा अपशब्द किसने डाला ? किस पाठशाला ने उसको यह शब्द सिखाया, और कौन है गुरु उसका ?
इन सवालों में उलझा ही था तभी मुझे याद आया कि मेरा बच्चा कल अपनी मां को समझा रहा था कि पेट्रोल और डिजल के दाम बढ़ने से देश का गौरव बढ़ा है यह राष्ट्रीय हित में है। तब मेरी समझ में आया कि उसका गुरु कोई और नहीं बल्कि वह स्मार्ट फोन है, जो मैंने ही उसको जन्मदिन पर उपहार में दिया था। 
स्मार्टफोन उसके हाथ में देते ही, मैं उसमें बहुत से बदलाव महसूस कर रहा हूं । मेरा शर्मिला बच्चा जो कल तक अपनी पेंट की खुली ज़िप की परवाह नहीं करता था, वह आज अपने फोन के लिए हर समय सतर्क रहता है। अगर किसी कारण फ़ोन का लाक खुला रह जाए या फोन इधर-उधर रखा जाए तो वह बेचैन ही नहीं होता बल्कि पागल हो जाता है। उसकी घबराहट और बैचेनी यह कहती है कि उसकी इस ज़रा सी चूक या लापरवाही के कारण मोबाइल में रखा हुआ उसका काला धन सार्वजनिक हो जायेगा और सरकार की नज़र पड़ते ही वह किसी बड़ी मुसिबत का शिकार हो जाएगा।    बच्चा अब बड़ी-बड़ी बातें भी करने लगा है। पहले से अधिक स्मार्ट और रहस्यमय भी हो गया है। उसकी रहस्यमय स्मार्टनेस देखकर ही मुझे अब अपनी गलती का एहसास हो रहा है कि मैंने बचपन की दहलीज़ पर खड़े अपने मासूम बच्चे के हाथ में समय से पहले स्मार्टफोन देकर अनजाने में उसकी ऊंगली समाज के उन लोगों को पकड़ा दी है, जो कभी उसकी पहुंच में नहीं थे, परंतु अब वे ही लोग फोन के माध्यम से उससे खेल ही नहीं रहे हैं बल्कि उन्होंने उसको सेल्फी वाले फोन से सेल्फी लेने का हुनर और रज़ाई में मुंह छुपा कर सपने देखना, खरीदना और बेचना भी बहुत कम समय में सीखा दिया है। इस हुनर ने ही उसको एक ऐसे बाज़ार का खिलाड़ी बना दिया है, जहां उसके नाम को लोग लाइक तो करते हैं पर नज़र नहीं आते। 
फोन ने उसको अपने एवं दूसरे धर्मों की वह गोपनीय बातें भी बता दी हैं जो उसके पूर्वजों ने परंपरा व समाज में सद्भाव बनाए रखने के लिए ना जाने कितने युगों से छुपा कर रखी थीं, जबकि वह जानते थे एक दिन जब बच्चे जवान होंगे तो यह जटिलताएं वह स्वयं ही जान जाएंगे। 
इतिहास का ज्ञानी भी वह हो गया है। परिवार को यह बताने का होंसला भी उसमें आ गया है कि हिंदुस्तान में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है, मुसलमान और ईसाईयों को इस देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है। यह लोग देश पर एक ऐसा बोझ हैं, जो बहुसंख्यक हिंदुस्तानियों पर उनकी इच्छा के विपरीत इस प्रकार लाध दिए गया है जिस प्रकार धोबी अपने गधे पर हर धर्म के कपड़े उसकी इच्छा के विरुद्ध लाध देता है।
सोशल मीडिया, जिसको वह पूज्य पाठशाला की तरह आदर करता है, उसको यह पाठ पढ़ाने में भी सफल हो गई है कि उसके देश को सेकुलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्षता के कैंसर ने बर्बाद किया है। वह यह भी जानता है कि यह वायरस पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने स्वार्थ के लिए पैदा किया था। किसी अवसर पर मेरे पूछने पर उसने कहा था कि जवाहर लाल नेहरू कौन थे, यह वह नहीं जानता है और ना ही जानना चाहता है, परंतु वह किसके इश्क में मुब्तिला थे और उनकी नूरजहां कौन थी यह सच्चाई वह अच्छी तरह जानता है। 
महात्मा गांधी के चरित्र और उनकी लीलाओं की सच्चाई के बारे में भी उसको सब कुछ पता है। इस लिए अब उसने अपना आइडियल बदल लिया है।
आज़ादी से पूर्व और बाद में देश को धोखा देने वाले देशद्रोही और राष्ट्रप्रेमी कौन लोग हैं, यह सच्चाई भी वह भली-भांति जान चुका है। 
राष्ट्रवाद के शिकार मेरे बेटे ने परिवार और समाज से दूरी बनाना बना ली है उसे अब हर व्यक्ति राष्ट्रद्रोही नज़र आ रहा है। उसने मुझसे भी बात करना कम कर दिया है या तो वह मुझे राष्ट्रद्रोही समझने लगा है या अपने से कम ज्ञानी या फिर एक ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी अय्याश के कारण बच्चों की फोज खड़ी कर दी है। 
अंततः मैं यह कहने के लिए विवश हूं कि स्मार्टफोन ने मेरे बेटे से उसकी बचपन की मासूमियत छीन ली है। लोगों का कहना है कि संसार सिमटकर एक गांव कि तरह हो गया है, जबकि मेरा बेटा परिवार और समाज से कटकर एक नए संसार में खो गया है, जो उसकी पैंट की बैक पाकिट में बस्ती है। यह पाकिट ही अब उसका परिवार, समाज, देश, धर्म, पाठशाला और समस्त संसार होकर रह गई है। इसी पाकिट के संसार ने उसको सिखाया है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हारा लालन-पालन करके तुम्हारे ऊपर कोई उपकार नहीं किया है बल्कि अपनी अय्याशी की कीमत चुकाई है।
स्मार्टफोन ने मेरा जवान बेटा चुरा लिया है। मैं बेटे को खोकर अपनी भूल की भारी क़ीमत चुका रहा हूं, शायद मेरी तरह ही देश के सारे पिता अपने बच्चों के चोरी होने की कीमत चुपचाप चुका रहे हैं।
*****
मेरी हास्य-व्यंग्य रचनाएं अगर आपको पसंद आ रही हैं और आप चाहते हैं कि आपके साहित्यिक मित्र भी इनका आनन्द लें तो उनको Share अवश्य किजिए और Blog Comments Box में अपनी प्रतिक्रिया लिखना ना भूलें।
धन्यवाद सहित 
शाहिद हसन शाहिद
70093-16992
Copyright reserved

4 comments:

  1. Bohat bohat achi khani hai sir gg... Aaj k time mein sb jyada jis vjh se mushkil aa rhi hai usko apne bohat hi ache trike se lakr samne rakh dia hai....

    ReplyDelete
  2. It gave me immense surprise & pleasure to read the current blog and its realistic narrative expressed using candidature of a smart phone and allied disadvantages developed in the civil society. Sh.Shahid sb picked all malpractices which are imbibing in the young generation effortlessly. Those countries which are bulk supplier for the smart phone or its components forbade the use in working/office time. You are supposed to deposit phone in repository during working hours or switching off the instrument. I appreciate sh. Shahid sb for his intellect, wisdom and caricature capacity for translating anf transforming social evils in real text and conceivable manner. May God bless him sound health and long life.
    Prof.Dr.Syed S.Hussain

    ReplyDelete
  3. मोहतरम मेरी प्रतिक्रिया से निश्चित रूप से आप एवं समाज के वो तमाम पिता सहमत नही होगें जो कि अपने बच्चों के लिए करते तो सब कुछ है परंतु समय से पहले कुछ आधुनिक उपकरणों को इस्तेमाल करने की इजाज़त भी या तो भूलवश, उपहारवश अथवा मोहवश उसी अन्दाज़ में पकड़ा देते हैं जैसे कि एक नाबालिग़ या अनाड़ी के हाथ में एक मोटर साइकिल या कार को पकड़ा देना बिना इस बात को सोचे समझे कि इसके परिणाम क्या होगें। याद रखिएगा कि अंधेरा हमेशा से आपसे आपकी सम्पत्ति छीनने को तैयार बैठा है सुरक्षित आपको स्वयं ही रहना है ताकि कोई बच्चा इस बात को न दोहराये कि :-
    "आपने मुझे पाल-पोस कर कोई एहसान नहीं किया है, अपनी अय्याशी की क़ीमत चुकाई है।"
    यदि एक बार भी इस बात पर ग़ौर कर लिया होता कि "जन्म दिवस मनाना" "भारतीय संस्कृति" नही तो इस अवसर पर उपहार का प्रश्न ही नही और अगर किसी अन्य शुभ अवसर पर उपहार की बात भी हो तो उस समय पर" APPLICATION OF MIND " की घोर आवश्यकता है ताकि"बेटे के मुंह से लेखक द्वारा वर्णित शब्द सुनने को विवश न होना पड़े।

    शायद नही यक़ीनन देश के वो सारे पिता अपने बच्चों के चोरी होने की कीमत चुपचाप इसीलिए मोहवश चुका रहे हैं कि वो कल तक भी एक "मोही" पिता थे और आज भी एक "मजबूर एवं मोही" पिता हैं न उन्हें "संस्कृति" कल नज़र आती थी न आज नज़र आती। हमें याद है कि बचपन में एक निबंध लिखवाया जाता था कि "विज्ञान अभिशाप है या कि वरदान"। मेरी विनती है कि हम विज्ञान के "अभिशापो" का सम्पूर्णतया तिरस्कार करें एवं "वरदानों" को गृहण करे ताकि हम अपनी नयी पीढ़ियों का नवनिर्माण कर सकें।
    *****

    ReplyDelete