Sunday, December 20, 2020

मैं भी किसान हूं

अचानक मेरे अंदर का किसान जाग उठा और बाग़ियाना अंदाज में कहने लगा कि मैं भी किसान हूं और आंदोलन में शरीक होने के लिए सिंधु बॉर्डर पर जाना चाहता हूं।
मैंने उसको हैरत से देखा और पूछा तुम कब से किसान हो गए?
उसने भी मुझे प्रश्नवाचक नजरों से देखा और कहा- मैं तुम्हारे अंदर एक साहित्यकार की भूमिका में काफी समय से छवियां गढ़ने का रचनात्मक कार्य कर रहा हूं। भिन्न भिन्न प्रकार की पृष्ठ भूमियों पर चरित्र पैदा करके तुम्हारी कहानियों को जीवन्त करता रहा हूं। इसके पश्चात भी क्या मुझे यह बताने की आवश्यकता है कि मैं भी किसान हूं, तुमको ज्ञात होना चाहिए कि जो व्यक्ति किसी भी प्रकार से कुछ भी पैदा कर रहा है वह किसान है। मैं छवियां पैदा करने वाला किसान हूं और अपने किसान भाइयों के संघर्ष को बल देने के लिए संघर्ष स्थल पर जाना चाहता हूं। 
उसकी दलील सुनने के बाद मैंने कहा- मैं समझ गया गमले में पुदीने की खेती करने वाले किसान की तरह तुम भी एक किसान हो,पर इसके लिए संघर्ष का ही रास्ता क्यों?  
मुझे इस समय किसान कई वर्गों में बटे नज़र आ रहे हैं, एक वर्ग संघर्ष कर रहा है, जबकि दूसरा सम्मेलन। तुम सम्मेलन वाले किसान क्यों नहीं हो जाते जहां खतरा कम है कुछ ना करने के पश्चात भी रंग चोखा है।
संघर्ष का दूसरा नाम ही किसान है, सम्मेलन तो तुम्हारे जैसे साहित्यकार, राजनीतिक या मुद्दों से फरार होने वाले लोग करते हैं। उसने मेरे बग़ैर  मांगे सुझाव का उत्तर देते हुए कहा।
अब मैं समझा कि कुछ लोग किसानों को अर्बन नक्सल क्यों कह रहे हैं। मैंने एक बार फिर उसको अपने कटाक्ष के निशाने पर लेते हुए कहा। उसने मेरी बात सुनी अनसुनी करते कहा- मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है, लेकिन मैं यह जानता हूं कि तुम्हारी वे सब कहानियां जो तुमने समाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते हुए लिखी हैं और जिस पर तुमको बड़ा गर्व है वे सब बकवास हैं। 
यह अचानक से मेरी कहानियां बकवास किस प्रकार हो गयीं उनको तो लोगों ने पसंद किया है उनकी प्रशंसा की है। मैंने उसकी आंखों में आंखें डाल कर पूछा तो उसने कहा, बर्फ जैसी ठंडी रात में खुले आसमान के नीचे संघर्ष करने वाले किसानों के साथ ना तो तुमने अभी तक ठंडी चाय पी है और ना ही उनके साथ लकड़ी जलाकर अलाव पर हाथ तापें हैं। मैंने उसकी बात को बीच में ही रोकते हुए कहा कि देसी गीजर से हुए गरम पानी से नहाते हुए भी तुम ने मुझे नहीं देखा होगा। उसने कहा- ठीक है....! इन कड़े अनुभवों से जब तक तुम नहीं गुज़रोगे किसानों की ही नहीं किसी भी समाजिक संघर्ष की कहानी नहीं लिख सकते यह मेरा विश्वास है। मैंने संवाद को आगे बढ़ाते हुए कहा- लंगर में काजू किशमिश,बादाम और पिज़्ज़ा खाने के बाद जिम और मसाज का मज़ा लेने वाले किसानों के संघर्ष की कहानी मैं नहीं लिख सकता इतना सुनकर ही मेरा पेट खराब हो जाता है।
काजू बादाम सुनकर पेट नहीं खराब होता है किसानों के कंधों पर रखी वह अदृश्य बंदूक देखकर तुम्हारा पेट खराब हो जाता है जिसका भय दिखाकर सरकार विपक्ष को निशाना बना रही है। उसने तुरंत उत्तर देते हुए कहा।
यह बात तुमने ठीक कही, बंदूक जैसी कोई चीज इस संघर्ष में डराने का काम तो कर रही है यह मैं भी महसूस कर रहा हूं। 
मेरी बात सुनकर वह एक क्षण के लिए खामोश हुआ और फिर बोला कुछ लोगों कह रहे हैं कि किसानों को संयोजक ढंग से भ्रमित किया जा रहा है तुमने सुना और भय के कारण आंखें बंद कर लीं और खामोश हो गए परंतु जब किसानों ने कहा कि हमको भ्रष्टाचारी,आतंकवादी,अर्बन नक्सली,टुकड़े टुकड़े गैंग,देशद्रोही, खालिस्तानी और बारबाला एंटोनियो के गुलाम कहकर बहुत सी बंदूकों से गोलियां दागी जा रही हैं तो तुम किसानों पर लगाए गए पचास लाख के जुर्माने के ज़िरो गिन्ने में व्यस्त रहे। यह कहां का इंसाफ है अंतरात्मा भी कोई चीज होती है। इतना कहकर उसने मुझे सोचने के लिए छोड़ दिया। 
अब मैं सच कहूं तो सच्चाई यह है कि मेरे अंदर मौजूद किसान ने मुझे अंतरात्मा की उस कसौटी पर खड़ा कर दिया है जहां मेरे लिए यह फेसला करना मुश्किल है कि आंखों पर काली पट्टी बांधकर इंसाफ करने वाली देवी की जगह अगर मैं स्वयं होता तो मुझे किसान की मर्यादा पर चली गोलियां नज़र आतीं या छुपा हुआ वह एजंडा, जो किसान को किशमिश बादाम की जगह भविष्य में सूखे चने खाने पर मजबूर कर देगा।
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शाहिद हसन शाहिद
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