Saturday, September 12, 2020

बंदूक की खाली नाल

मेरे आश्चर्य की सीमा उस समय समाप्त हो गई जब मैंने देखा कुछ चिड़ियां सूर्य को निगलने की कोशिश में है।
वह सूर्य- जिसकी गरिमा एवं ऊर्जा में हम शांतिमय, सौहार्द्रपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। जो अपनी आंखों पर काली पट्टी बांधकर हमें धर्मनिरपेक्षता के साथ न्याय देता है। उसी सूरज को आज कुछ बिगड़ेल चिड़ियों की ओर से आपने पंखों की काली छतरियां दिखाकर ललकारा जा रहा है। उसके प्रताप को समाप्त करने की योजना की जा रही है। यह एक खतरनाक पहल थी, जिसे देखकर मुझे धक्का लगा और मैं एक आम नागरिक की तरह व्याकुल हो उठा। व्याकुलता कि इस घड़ी में मुझे अपनी वह शपथ याद आ गई, जो मैंने कभी एक सभ्यनागरिक की भांति राष्ट्रवाद, शिष्टाचार, आपसी भाईचारे, अहिंसा और सर्वधर्म सम्मान व शांतिमय जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा के साथ ली थी।
शपथ का विचार आते ही मैंने सोचा- अगर आज सूर्य पर काले बादल छा गए और वह चिड़ियों के षड्यंत्र का शिकार हो गया, तो मेरी राष्ट्र भावना का क्या होगा। देश के प्रति मेरी निष्ठा व परिस्थितियां कहती हैं कि मैं इस समय खामोश ना रहकर आगे बढ़कर इस संभावित खतरे का मुकाबला करूं। खाली हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से शपथ की मर्यादा पूरी नहीं होगी। समय मुट्ठी में बंद रेत की तरह होता है अगर यह फिसल गया तो मेरे पास केवल अफसोस करने के कुछ नहीं बचेगा। व्यक्तिगत तौर पर मुझे कुछ न कुछ निर्णय निश्चय ही लेना होगा।
 यह सूर्य ही नहीं रहा तो हम न्याय के लिए किसके द्वार पर जाकर खटखटा एंगे। मुझे अवश्य ही इन निर्भय एवं ज़िद्दी चिड़ियों के विरुद्ध क़दम उठाना चाहिए।
यह सोचकर मैंने तुरंत उत्साहित होते हुए एक स्वाभिमानी व साहसी निर्णय लिया। मैंने साहस के साथ अपनी दोनाली बंदूक निकाली। बंदूक पर चढ़ी धूल व मिट्टी साफ की। उसका बहुत ही बारीकी के साथ निरीक्षण किया। निशाना चेक किया और फिर बंदूक के कारतूस निकाल कर बाहर रखे। एक गहरी सांस ली और स्वयं को शांत करते हुए अपनी इस पूरी कारवाई से संतुष्ट होकर बंदूक की खाली नाल पर अमन का प्रतीक सफेद कपड़ा बांधा और उसको रख आया निर्भीक, बिगड़ेल, ज़िद्दी चिड़ियों की ओर मुंह करके,खुले आकाश के नीचे। जो उस समय भी सूर्य को निकलने की चेष्टा में निरंतर प्रयास कर रहीं थीं।
नोट:- यह कहानी मैंने दूसरी बार पोस्ट की है। पहली कहानी किसी कारणवश डिलीट हो गई थी।

No comments:

Post a Comment