सोना लो, चांदी लो, यह आवाज़ जैसे ही मोहल्ले की गलियों की दीवारों से टकराई। कई महिलाऐं टोकरीयां और थेले लेकर घरों से बाहर निकल आयीं। सोना-चांदी शब्द जो आपने पढ़े वे सत्य हैं। इसमें शब्दों की कोई जादूगिरी नहीं है। महिलाएं बहुत देर से इस सोने-चांदी बेचने वाले की प्रतीक्षा में थीं, वे उसकी आवाज़ सुनकर बगैर देर किए पूरी तैयारी के साथ घर से बाहर निकल आयीं। मैंने भी एक थैला उठाया और इस सोना-चांदी बेचने वाले वेंडर की प्रतीक्षा में महिलाओं के झुंड से दूर अपने घर के दरवाज़े पर खड़ा हो गया।
आप सोच रहे होंगे कि विश्व में ऐसा कौन सा देश है, जहां सोना-चांदी वहां के वेंडर गलियों में आवाज़ लगाकर बेचते हों, कहीं मैं किसी काल्पनिक देश की बात तो नहीं कर रहा हूं। जहां सोना चांदी गली मोहल्ले में फेरीवाले आवाज़ लगाकर बेचते होंगे। नहीं,ऐसा नहीं है, मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है की मैं विदेश या काल्पनिक देश की बात नहीं कर रहा हूं ,मैं अपने ही देश की बात कर रहा हूं जिसकी अर्थव्यवस्था शून्य 25 से नीचे जा कर आत्महत्या करने के लिए उत्सुक है। वह देश जिसके सामने कई करोड़ संगठित व असंगठित बेरोजगारों की सेना मुंह खोले खड़ी है, जहां समाज का हर वर्ग असुरक्षा और अविश्वास के कारण एक दूसरे को शक की निगाह से देखता है। जहां झूठ और पाखंड आपसे आपका धर्म पूछता है,जहां राष्ट्रवाद के नाम पर लोगों को गाली देना सिखाया जाता है। जहां अन्न पैदा करने वाला अपने बच्चों के पेट भरने के लिए सड़कों पर बैठकर लाठियां खाता है। वह देश जो करोना आपदा की होड़ मैं अपने दोस्त अमेरिका से आगे निकलने की होड़ में है। वहां गली में फेरी लगाने वाले वेंडर सोना और चांदी फेरी लगाकर बेच रहे हैं। यह और बात है कि सोने चांदी के नाम से बिकने वाली सब्जियां सोने चांदी की तरह ही महंगी हैं। जिनको मध्यवर्गी ग्रहणियां केवल छूकर ही रह जाती हैं, खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं।
सोना-चांदी बेचने वाले ने मुझसे पूछा- बाबूजी...! आप क्या लेंगे।
मैंने कहा-लेहसन। उसने कहा- ₹300 किलो, मैंने कहा- हरा धनिया। उसने कहा ₹300 किलो। हरी मिर्च, वह भी ₹300 किलो।
मैंने विरोध जताते हुए कहा-इतनी महंगी। उसने हंसते हुए कहा- मैं सोना और चांदी बेच रहा हूं, आपने शायद मेरी आवाज़ सुनी नहीं।
मैंने उसकी हंसी का बुरा मानते हुए कहा- आप सोना चांदी क्यों बेच रहे हैं, सब्जियां बेचिए जो लोगों के काम आ सकें।
उसने मेरी बात को हवा में उड़ाते हुए कहा-
जो मिल रहा है और जिस दाम में मिला है, ले लीजिए साहब, समय का पता कुछ नहीं कल हम हों या ना हों।
उसके इस प्रकार बात करने पर मुझे गुस्सा आ गया और मैंने चिढ़ते हुए कहा- क्यों ले लूं कोई ज़ोर जबरदस्ती है? उसने कहा- बाबू जी बुरा ना मानें तो मैं एक बात कहूं । मैंने कहा कहो। उसने कहा-इन्हीं तेवरों में यही बात अगर आपने सरकार से कही होती तो आज यह नौबत नहीं आई होती कि हमारी मां, बहनें सब्जी पकाने के लिए भी तरस गई हैं। वह सब्जी को केवल छूकर देखती हैं और फिर रेट सुनकर उसी जगह रख देती हैं, खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं। फिर उसने किसी दार्शनिक विद्वान की तरह कहा-श्रीमान जी, हमारी सहनशक्ति खतरनाक स्तर तक बढ़ गई है, हम नफरत और प्रोपेगेंडे के इस युग में बर्फ की तरह जम चुके हैं या मूल मुद्दों से भटक गए हैं, जबकि इस प्रकार से जम जाना या भटक जाना एक स्वस्थ समाज के लिए कोई अच्छा चिन्ह नहीं है, यह चिंता का विषय है। इतना कहकर वह थोड़ा सा रुका और फिर कहने लगा- यह तो आप भी भली-भांति जानते हैं कि पानी अगर बेहता रहे तब ही वह स्वच्छ व शीतल रहता है, एक जगह ठहर जाए तो सड़कर बदबू देने लगता है। इतना कहकर उसने एक गहरी सांस ली और फिर बोला-अगर बुरा ना मानें तो छोटा मुंह और बड़ी बात कहूं। मैंने बड़े रूखे पन से कहा- कहो। वह बोला प्रॉब्लम यह है कि आप अपना विरोध केवल सब्ज़ी वाले पर ही उतारना जानते हैं, इससे आगे कुछ नहीं। इतना कहकर वह हंसता हुआ आगे बढ़ गया और मैं बहुत देर तक अपने अंदर बर्फ जैसी ठंडक और ठहरे हुए पानी की गंध महसूस करता रहा फिर अचानक मैं दौड़ कर उसके पास गया और उससे पूछा- सब्जी बेचने से पहले तुम क्या करते थे? उसने कहा- दार्शनिक का प्रोफेसर था।
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शाहिद हसन शाहिद
70093-16991
Deep message 👌🏻
ReplyDeletenice
ReplyDeleteReality awaiting for bad to worst. See farmer's plight and hidden meaning of the story
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