मैंने अपने बेटे से कहा-आज़ादी का अर्थ यह नहीं है जैसा कि तुम समझ रहे हो।दिशाहीनता और पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित तुम्हारी जीवन शैली ने आज़दी शब्द को अर्थहीन बना दिया है। इसका का आदर करो, यह बहुत क़ीमती है, मेरे बेटे।
उसने आत्म-निर्भरता के साथ नपे-तुले शब्दों में एक ही वाक्य में उत्तर देते हुए मुझ से कहा- आप बूढ़े हो गए हैं पिताजी।
मैंने अपनी बेटी से कहा- समाज ने लड़कियों के लिए कुछ सीमाएं निर्धारित की हुई हैं। तुम उन सीमाओं का उल्लंघन करती दिखाई दे रही हो। लज्जा हमेशा से स्त्री का बहुमूल्य आभूषण रहा है, तुमने यह आभूषण क्यों उतार फेंका मेरी प्यारी बेटी? उसने तुरंत भाहीन स्वर मैं मुझे उत्तर देते हुए कहा- आप बूढ़े हो गए हैं पापा।
मैंने अपनी पत्नी से कहा- नारी स्वतंत्रता, महिला सशक्तिकरण,आत्मसम्मान एवं पुरुष से समानता जैसे शब्दों के मायाजाल मैं फंसकर यह जो कुछ आप नि:संकोच एवं निर्भय होकर कर रही हैं,यह सरासर गलत है और आने वाली पीढ़ियों के लिए तबाही भी। हमारी सभ्यता, परंपरा और रीति-रिवाज किसी भी स्थिति में इसकी अनुमति नहीं देते हैं। भविष्य की पीढ़ियों के चरित्र निर्माण की जिम्मेदारी आपके कंधों पर है। इस जिम्मेदारी को कुशलतापूर्वक पूरा कीजिए और तुरंत रोकिए इन खुराफात को, जो समाज में आ रहे बदलाव के नाम पर आप अपनाती जा रही हैं,नहीं तो देर हो जायेगी। अगर देर हो गई तो विरासत के नाम पर नई पीढ़ी को देने के लिए आपके पास कुछ नहीं बचेगा। इतना सुनकर उन्होंने बड़ी निंदनीय निगाहों से मुझे देखा और ललकारते हुए कहा- बूढ़े हो गए हैं आप।
परिवार की प्रतिक्रियाएं सुनने के बाद, मैंने समाज को संबोधित करते हुए कहा- ऐसी क्या मजबूरी थी जो रिश्तों की गरिमा,मान-मर्यादा, आपसी भाईचारा,सम्मान, प्रेम, व्यवहार,चरित्र की गरिमा, शालीनता सब कुछ छोड़ दी तुमने। तुम ही तो हमेशा से हमारी पहचान रहे हो। तुम ही बदल गए तो हम किस दर्पण में अपना प्रतिबिंब देखकर स्वयं को पहचानेंगे।
भावी पीढ़ियां किस चीज पर गर्व करेंगे।
क्या तुमने कभी सोचा है ? तो उसने बड़े अहंकारपूर्ण एवं उपेक्षिता के साथ मुझ से हुए कहा- बूढ़े हो गए हो तुम।
इसके बाद मैंने राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा- राष्ट्र स्वाभिमान, सम्मान,गौरव, रीति- रिवाज, सभ्यता आदि सब राष्ट्र इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों से लिखे यह वह शब्द होते हैं, जो सदियों में निर्माण होते हैं। त्यौहार प्र:या हमारी सभ्यता एवं परंपरा की पहचान रहे हैैं, तुमने इन सब मूल्यवान आदर्शों को छोड़कर यह किस नई सभ्यता के साथ हाथ मिला लिया है जो हमारी विचारधारा व चरित्र से मेल नहीं खाती है। हर रोज नए-नए त्यौहार,नई-नई मान्यताएं, जो तुम मनाने लगे हो वे हमारे समाज का कभी अंग नहीं रही हैं, यह विशेष दिवस मनाने का चलन तुमने कहां से सीख लिया। जो हमारी सभ्यता का हिस्सा कभी थे ही नहीं। इसकी जवाबदेही तो तुमको करनी ही होगी नहीं तो समय तुम्हें माफ नहीं करेगा।
उसने बड़ी घृणित नज़रों से मुझे देखते हुए कहा- बूढ़े हो गए हो तुम।
इस पूरे संवाद का निष्कर्ष यह निकला कि हर वर्ग ने एकमत होकर यह घोषणा करने में देर नहीं की कि मेरी सोच बूढ़ी एवं रूढ़िवादी हो चुकी है और मैं बुढ़ा। जबकि मैं यह मानने के लिए कदापि तैयाार नहीं कि मैं बूढ़ा हो गया हूं। मेरी चेतना मेरी सोच और मेरा विवेक मुझसे पूछता है। क्या क़ुराने पाक की शिक्षाएं,गीता के संदेश, बाइबल के उपदेश या गुरु ग्रंथ साहब की वाणी कभी बूढ़ी हो सकती है ? क्या पीर-फकीरों, ऋषि- मुनियों के पाक क़दमों से गुंथी मेरे देश की मिट्टी बूढ़ी हो सकती है ? क्या मेरे देश की बहुरंगी विरासत कभी बूढ़ी हो सकती है? अगर यह सब बूढ़े नहीं हो सकते हैं, तो मैं कैसे विश्वास कर लूं कि मैं बूढ़ा हो गया हूं।
- शाहिद हसन शाहिद
70093-16991
*******
कहानी पर अपनी प्रतिक्रियाएं नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में अवश्य लिखें। धन्यवाद
They don't know meaning of independence and life. They are under uprising of endocrine hormones which dominates over all factor and realities. They are living in self diminishing digital world. Post-COVID days teach them a lesson to learn from society, poverty, unemployment, non- ending diseases and roll-in economy. You( Shahid sb.you are real hero. Regards, Prof SHusain
ReplyDeleteDeep message 👌🏻
ReplyDelete👍
ReplyDeleteVery nice story 👍👍👍
ReplyDeleteBahut khoob, Sochne Par Majboor kardene wali Tehreer 👍
ReplyDeleteBahut umda dastaan
ReplyDeleteAsslamalekum aaj aap ki khani budge ho Gaye ho tum 0yr shadiyo purana h
ReplyDeleteOr hr young me dohraya Gaya h
Or ek umar ke bad hr insan ke hisse me aata h ye hi nai umar or badi umar ke beech ka fark h bahut ache tareke se aap ne hamare wait ki dastan likhi allah aap ki kalam or zindagi ki roshnai bahre aamin
Thanks
Deleteशाहिद साहब हमारा समाज उसी दिन बुढा हो चुका था जब "पाश्चात्य" की होड़ में कुरान पाक की शिक्षाऐ, गीता के सन्देश,बाईबिल के उपदेश या गुरु ग्रन्थ साहेब की वाणी, पीर फ़क़ीरो और ऋषि मुनियों की पावन मिट्टी को छोड़कर हमनें अपने बच्चों को"द्रव्यवाद[METALISTIC]/معداپرستی" की ख़ातिर "पाश्चात्यवाद/द्रव्यवाद/معداپرستی" अपनाए जाने की ओर प्रेरित किया था। क्या हम सब इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं है। क्या "पाश्चात्यवाद" का "प्रेरणादायक" बनते समय हमने "पावनग्रन्थ" उन बच्चों के हाथों में सौंपे थे जिनकी आज हम दुहाई दे दे कर अपने आपको आज बूढ़ा मान रहे हैं। बहरहाल चिड़िया चुग गई खेत। लेकिन निराशा होने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है।
ReplyDelete"हर रह गुज़र पे शमआ जलाना हैं मेरा काम""तेवर है कया हवा के मुझे देखना नहीं"।