मेरा शरीर मेरी संपत्ति है। मैं इसको जिस प्रकार चाहूं रख सकती हूं। किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। यह शब्द उस लड़की के थे, जो देखने में एक मध्यवर्गीय परिवार की लग रही थी और मेरे पास नौकरी की तलाश में इंटरव्यू देने आई थी। पश्चिमी डिजाइन के कपड़ों में वह सुंदर लग रही थी। मैंने एक नज़र उस पर डाली और बैठने के लिए कुर्सी की ओर इशारा करके उसका सीवी पढ़ने लगा। शैक्षणिक योग्यता देखने के बाद जब मैंने कुछ प्रश्न पूछने के लिए उसकी ओर देखा, तो मैं यह देखकर हैरान रह गया की 21 वर्षीय इस लड़की की शर्ट में बटन नहीं थे और जो वह पहने थी उसका गला गहराई तक खुला हुआ था। जिस से उसके शरीर के खुले अंग साफ देखे जा सकते थे। जबकि वह इस दिगम्बर अवस्था में सजगता के साथ बैठी हुई थी।
मैंने अपनी नज़रें नीचीं रखते हुए उससे कहा- पहले आप अपने कपड़े ठीक कीजिए फिर आगे की बात करते हैं।
उसने बुरा सा मुंह बनाकर मेरी ओर देखा और पूछा- इसमें बुरा क्या है ?
मैंने कहा- बुरा कुछ नहीं है फिर भी बेटियों का सम्मान हमारी संस्कृति है। इतना सुनकर उसने मेरी आंखों में आंखें डाल कर कहा- शहर में लगे बड़े-बड़े होल्डिंग पर नज़र आने वाली मॉडल के कपड़ों पर आपने कभी आपत्ति नहीं जताई ? उनको देखकर क्यों शांत हो जाते हैं आप और आपका सभ्य समाज। उन बड़े ब्रांड से क्यों नहीं कहा जाता कि हम तुम्हारे प्रोडक्ट का बहिष्कार कर रहे हैं, तुमने एक स्त्री को भरे बाज़ार में निर्वस्त्र किया है।
उसका तर्क सुनकर मैंने कहा- देखो बेटी...! वह रंगों से बनी केवल एक छवि होती है, मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही उसनेे मुझे रोकते हुए कहा- पर वह छवि होती तो एक स्त्री की ही है।
मैंने फिर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा- उनमें भावनाएं नहीं होती हैं।
उसने फिर टोकते हुए कहा- परंतु वह भावनाएं जगाती तो है।
जीवित औरत और तस्वीर में बहुत अंतर होता है, आप यह क्यों नहीं समझातीं। हाड- मास की महिला में भावनाएं भी होती हैं और सेक्स अपील भी। अक्सर देखा गया है कि महिला को अर्धनग्न देखकर बहुत से अमानुष्य अपने ऊपर निरंतर खो देते हैं और बलात्कार जैसे संगीन जुर्म हो जाते हैं। मैंने उसके तेवर देखते हुए समझाने की कोशिश की।
यह पुरुषों की समस्या है,उनकी बिमार मानसिता और परवरिश की समस्या है, स्त्री की नहीं। उसने भी तुरंत उत्तर देते हुए कहा। इतना कहकर वह कुछ क्षण के लिए खामोश हुई और एक गहरी सांस लेते हुए बोली- देखिए, अंकल...! पुरुष समाज को महिला के प्रति अपना दख्यानूसी दृष्टिकोण बदलना होगा विश्व गुरु ऐसे ही नहीं बना जाता इसके लिए समाज को एक बड़ी राष्ट्रवादी क्रांति सोच की आवश्यकता है जिसमें हम महिलाएं की हिस्सेदारी भी जरूरी है। 5 मीटर साड़ी में लिपटी महिला अब अपने हौसलों के साथ खुले आसमान में उड़ना चाहती है, जो उसका हक़ है उसको उसका हक़ मिलना चाहिए। फिर उसने मुझसे कहा-
पुरुष प्रधान समाज ने अपनी झूठी शान बनाए रखने के लिए महिला को बड़ी चतुराई से अपने शाब्दिक जादू से लज्जा व शर्म जैसे मायावी ज़ेवर पहना कर युगों से क़ेद कर रखा है। उसकी शारीरिक संपत्ति को कपड़ों से बनी गुफाओं में कैद रखने का एक प्रकार से अपराध किया है। इतना कहकर वह खड़ी हो गई, मैं समझा कि मेरे विचारों से वह नाराज़ हो गई है और अब मेरी झूठी सभ्यता पर थूक कर जा रही है। मैंने इस क्रांतिकारी लड़की को सर से पैर तक गौर से देखा। उसने भी मुझे देखते हुए देख लिया था। शायद इसलिए वह गई नहीं बल्कि बड़े आराम से कुर्सी पर बैठ गई और बोली- अंकल...! सच बताएं
आपने मुझमें क्या देखा।
मैंने कहा- कुछ खास नहीं देखा, केवल यह कि तुम एक आम सी दिखने वाली लड़की हो, जिसकी जींस घुटनों से ऊपर और घुटनों से नीचे फटी हुई है।
उसने कहा- इसके अतिरिक्त आपने क्या देखा ?
मैंने कहा- इससे ज्यादा कुछ नहीं देखा।
उसने कहा- यही बात मैं कहना चाहती हूं कि पुरूषों को महिलाओं को देखने का आपना दृष्टि कोण बदलना होगा। आपको मेरी फटी जींस के अतिरिक्त कुछ नज़र नहीं आया क्योंकि आप कुछ और देखना नहीं चाहते थे, जबकि कुछ लोग अपनी लालसा में बहुत कुछ तलाश करते हैं। उन लोगों को फटी जींस देखने की आदत डालनी होगी इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। फटे जींस जो आज का फेशन हैं।
फिर उसने आगे कहना शुरू किया कि कुदरत ने किसी चीज़ को छुपा कर नहीं रखा है। हमने कपड़ों को डिजाइन करते समय मर्द और औरत में भेदभाव पैदा किया है। इस भेद भाव को समाप्त करना समय की आवश्यकता है।औरत की आजादी और सशक्तिकरण बहुत जरूरी है। देश के विकास में बाधा आ रही है। हम अपने देश को महिलाओं की आजादी के परिपेक्ष में जापान,फ्रांस,चाइना,इसराइल और अमेरिका की तुलना में बहुत पिछड़ा पाते हैं।
उसकी आक्रामकता को देखते हुए मेरी यह पूछने की हिम्मत ही नहीं हूई कि क्या वह उन महिलाओं की बात कर रही है, जो आजादी और पुरूष समानता के नाम पर आंदोलन करते समय पूरी तरह नंगी होकर सड़कों पर फोटो शूट कराती हैं। क्योंकि मैं विवाद नहीं चाहता था। फिर भी मैंने डरते डरते उससे पूछा- तुमको इस प्रकार रहने पर डर नहीं लगता ?
उसने पुनः मुझसे पूछा- कैसा डर ? फिर उसने कहा- डर नाम की कोई चीज संसार में नहीं होती है, जहां विश्वास कमजोर पड़ जाता है वहां डर आ जाता है और लोग उसको धर्म कहने लगते हैं। इतना कहकर वह मुस्कुराई और बोली- आपके छुपे हुए प्रश्न का उत्तर यह है कि चोरियां तो बंद कमरों में भी हो जाती हैं। हमें चोरी से नहीं चोरों से लड़ना है। उसके तर्क और क्रान्तिकारी जज़्बात सुनकर मैं कुछ कहने की हालत में स्वयं को नहीं पा रहा था।
केवल इतना ही सोच रहा था कि वह कौन लोग हैं जो इन लड़कियों को अपने स्वार्थ के लिए दिशाहीन कर रहे हैं ? बेरोजगारी इसका मूल कारण तो नहीं है ? या नफरत का यह एक ऐसा सोचा समझा खेल है, जो राजनीतिक इशारों पर महिलाओं के हक़ के नाम पर खेला जा रहा है। बाजारवाद या महिला वोट बैंक को बढ़ावा देना जिसका मुख्य उद्देश्य है। एक विचार मेरे मन में यह भी आ रहा था कि अपने आदर्श,मान मर्यादा, उच्च धार्मिक विचार और संस्कारों की आध्यात्मिक खुशबू से पूरे संसार को सुगंधित करने वाला पिता आज अपनी ही मासूम बच्चियों का दुरुपयोग होता देख कर खामोश क्यों है ? गफलत में कूड़ेदान पर फेंकी गई वस्तु को दुबारा उठाने में संकोच केसा ?
सवाल गम्भीर हैं समाधान तलाश करना होगा। आप भी सोचिए मैं भी सोचता हूं।
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शाहिद हसन शाहिद
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