मुझे आज जिस व्यक्ति का इंटरव्यू करना था वह अपनी वेशभूषा से किसान लग रहा था और मेरे स्टूडियो में उसी लापरवाही से बैठा था जैसा कि कुछ समय पहले वह धरना स्थल पर अपनी ट्रेक्टर ट्राली में बैठे था। स्टूडियो मैं लगे कैमरों से वह डरा हुआ नहीं था बल्कि मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह कैमरों को डराते हुए कह रहा हो कि अब मैं तुमको बताऊंगा कि मैं कौन हूं।
मेरा अनुभव कहता है कि आजकल मध्यवर्ग में क्रोध का स्तर कुछ अधिक बढ़ा हुआ है। उसको सरकार से इतनी शिकायतें हैं कि ज़रा सी बात पर यह वर्ग उग्र हो जाता है। यही मध्यवर्ग आजकल किसानों की शक्ल में संघर्ष करते हुए सड़कों पर है। जितना क्रोध इस समय इस वर्ग में है उतना गरीबी की रेखा से नीचे जीवन जीने वाले गरीबों या अमीरों में नजर नहीं आता।
मैंने उस व्यक्ति को ऊपर से नीचे तक कई बार देखा मुझे ऐसा लगा कि यह एक व्यक्ति ना होकर स्वयं मुकम्मल आंदोलन है, जो मेरे प्रश्न पूछते ही फट जाएगा और पल भर में सरकार विरोधी शिकायतों की फेहरिस्त खोल कर रख देगा। मैंने इंटरव्यू आरंभ करते हुए उससे पूछा- तुम्हारा नाम क्या है।
उसने मेरे शक को सही साबित करते हुए एक प्रकार से फटते हुए मुझसे ही प्रश्न कर दिया- क्या मेरी बेइज्जती करने के लिए बुलाया है?
मैंने अपने लेहजे में नरमी बरतते हुए कहा- नाम पूछना बेज्जती नहीं होती है। इंटरव्यू का नियम होता है कि इंटरव्यू देने वाले का नाम पूछा जाए। तुम अपना नाम बताओ ताकि हमारे दर्शकों को मालूम हो सके कि वह किसकी बात सुन रहे हैं।
उसने कहा- मैं अपना नाम सर्वजनिक नहीं करना चाहता इस कारण नाम नहीं बताऊंगा।
संवाद को आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा- ऐसा क्या है तुम्हारे नाम में जो तुम सर्वजनिक नहीं करना चाहते। तुम इस समय नेशनल चैनल पर हो, करोड़ों लोग तुम्हारा नाम जानना चाहते हैं। पर मैं करोड़ों लोगों को अपना नाम नहीं बताना चाहता, उसने साफ शब्दों में कहा।
मैंने पूछा- इसका कारण?
उसने कहा-मेरी पहचान किसान है जो नाम बताते ही समाप्त हो जाएगी।
नाम से किसानियत का क्या संबंध है, मैं समझा नहीं। उसने कहा-बहुत गहरा संबंध है,आप अपना इंटरव्यू शुरू कीजिए।
यह समस्या तो बड़ी गंभीर है मैंने एक बार फिर कौशिश की। उसने कहा-ऐसा ही समझ लीजिए। मैंने संवाद जारी रखते हुए अपने चर्चित पत्रिकाना अंदाज में कहा-मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि तुम्हारा नाम मुगल कालीन की याद दिलानेे वाला है ?
उसने प्रश्न का उत्तर ना देते हुए केवल इतना कहा कि जब मैं अपना नाम बताऊंगा तो परेशानी मेरे लिए कम तुम्हारे लिए ज्यादा खड़ी हो जाएगी।
मैंने चौंकते हुए उससे पूछा ऐसा क्यों?
उसने कहा-मान लो अगर मैंने अपना नाम तुम्हारी अटकलों के अनुसार मुगलकालीन युग से संबंधित बता दिया तो तुम असल मुद्दों से भटक कर मेरा नाम बदलने, मेरी घर वापसी या मेरे नाम के पीछे पाकिस्तान या चायना को तलाश करने लग जाओगे, जैसा कि भविष्य के अनुभव कहते हैं और वैसे भी तुम्हें मेरे नाम से क्या लेना देना है तुमने तो स्वयं मेरा नाम अन्नदाता रखा था फिर अचानक ही तुमने मुझे इतने नाम दे दिए कि मैं स्वयं कंफ्यूज हूं कि मैं स्वयं को टुकड़े टुकड़े गैंग कहूं, अर्बन नक्सल कहूं, दलाल, राजद्रोही, आतंकवादी, खालिस्तानी कहूं। इन सबके अतिरिक्त आलसी, निठल्ले, बहके हुए लोग कहते हुए पिछले एक माह से तुम्हारी जुबान नहीं थकी है। लोगों ने अपने भाषणों में या अपने ट्वीट द्वारा मुझे इन नामों से केवल एक बार ही बदनाम किया होगा जबकि तुम्हारे चैनल 24 घंटे मैं कई हजार बार इन नामों के सहारे कभी मेरे संघर्ष पर घड़ियाली आंसू बहाकर तो कभी मेरे मान सम्मान पर सिधा हमला करके मुझे रूसवा कर रहे हैं। अब तुम मुझे किसी भी नाम से पुकारो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर उसने एक गहरी सांस ली और थोड़ा रुक कर बोला मुझसे तुम किसी नए नाम की उम्मीद क्यों रखते हो। मैं नहीं चाहता कि इस संघर्ष के गर्भ से जन्म लेने वाली आवाज़ के चेहरे पर एक नए नाम का टेग अभी से लगा दिया जाए, ताकि तुम उसको पंजाब, हरियाणा, यूपी, महाराष्ट्र या हिंदू, मुसलमान,सिख, ईसाई और जातियों में बांट कर उसको कमजोर कर सको। यह कहते हुए वह भावुक हो गया और उसकी आंख से एक आंसू टपक कर जब जमीन की ओर बढ़ने लगा तो मैं चाहते हुए भी उसको अपने हाथों की हथेली पर सजा नहीं सका क्योंकि पत्रकारिता मेरी मजबूरी थी।
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शाहिद हसन शाहिद
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